हड़प्पा सभ्यता का परिचय :
हड़प्पा सभ्यता न केवल भारत की अपितु सम्पूर्ण विश्व की प्राचीनतम चार प्रमुख सभ्यताओं में से एक थी। यह सभ्यता एक सुविकसित नगरीय सभ्यता थी। चूँकि पुरातत्वविदों द्वारा सर्वप्रथम हड़प्पा नगर की खोज की गई थी, इसलिए इसे हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है। हड़प्पा के पश्चात् पुरातत्वविदों ने इस सभ्यता के अन्य नगरों मोहन जोदड़ो, चन्हुदड़ो, लोथल, कालीबंगा रंगपुर, रोपण, आलमगीरपुर आदि अनेक नगरों की खोज की यह पूरी सभ्यता एक त्रिभुजाकार क्षेत्र में फैली हुई थी। भारतीय सभ्यता के ये सभी प्रारंभिक नगर थे। इन सभी नगरों का पुरातत्वविदों ने जो उत्खनन किया, उससे इनकी अपनी कहानी लिखी गई। इन प्रारंभिक नगरों के पुरातात्विक उत्खनन एवं यहाँ प्राप्त हुई सामग्री एवं सभ्यता का विस्तृत अध्ययन हम यहाँ करेंगे।
हड़प्पा सभ्यता की खोज एवं उत्खनन कार्य :
इस सभ्यता का उदय ताम्र पाषाणिक पृष्ठभूमि में भारत के पश्चिमोत्तर भाग में हुआ। सर्वप्रथम 1921 ई. में रायबहादुर दयाराम साहनी एवं माधव स्वरूप वत्स ने पंजाब के मांटगुमरी जिले के हड़प्पा नामक स्थान पर उत्खननों को प्रारंभ करके वहाँ एक प्राचीन सभ्यता के अवशेष खोजे। अगले ही वर्ष 1922 ई. में राखालदास बनर्जी ने सिन्ध प्रान्त के लरकाना जिले में मोहन जोदड़ो नामक स्थान पर कुछ प्राचीन अवशेषों को ढूँढ निकाला। दोनों स्थानों से मिली मुहरे, ठप्पे, लिखित लिपि और कलाकृतियाँ एक जैसी थी। विद्वानों ने इसे सिन्धु सभ्यता अथवा सिंधु घाटी की सभ्यता का नाम दिया। क्योंकि प्रारंभ में अनेक बस्तियाँ सिन्धु घाटी एवं उसकी सहायक नदियों के मैदानों में पाई गई थी। किन्तु बाद के वर्षों के अनुसंधानों से यह स्पष्ट हो गया कि यह सभ्यता केवल सिंधु घाटी की सीमाओं तक ही सीमित नहीं थी अपितु राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, पूर्वी पंजाब और गुजरात जैसे इलाकों तक फैली हुई थी। अतः विद्वानों ने सभ्यता के सबसे पहले ज्ञात स्थल ‘हड़प्पा’ के आधार पर इसका नामकरण ‘हड़प्पा सभ्यता’ कर दिया।
हड़प्पा सभ्यता का काल उद्भव और विस्तार :
पुरातात्विक अवशेषों से पता चलता है कि हड़प्पा सभ्यता से पहले लोग छोटे-छोटे गाँवों में रहते थे। समय बीतने के साथ-साथ छोटे कस्बे बने और इन कस्बों से हड़प्पा काल के दौरान पूर्ण विकसित शहरों का विकास हुआ। वास्तव में हड़प्पा काल की संपूर्ण अवधि को तीन चरणों में बाँटा गया है-
- प्रारंभिक हड़प्पा काल (3500 ई. पूर्व से 2600 ई. पू.) – इस काल की विशेषताओं का उल्लेख मिलता है, इसकी मिट्टी से बने ढाँचों, प्रारंभिक व्यापार, कला और शिल्पों इत्यादि में।
- परिपक्व हड़प्पा काल (2600 ई. पूर्व से 1900 ई. पू.) – यह वह चरण है जब हमें आग के भट्ठे में पकी ईंटों से बने ढाँचों वाले भली-भाँति विकसित शहर, स्वदेशी और विदेशी व्यापार और विविध प्रकार के शिल्प देखने को मिले।
- उत्तर हड़प्पा काल (1900 ई. पूर्व से 1400 ई. पू.) – यह पतन का काल था जिसके दौरान शहर उजड़ने लगे थे और व्यापार समाप्त हो गया था जिससे धीरे-धीरे शहरीकरण की मुख्य विशिष्टताएँ लुप्त होती गई।
हड़प्पा सभ्यता की विशेषताएँ :
1. नगर योजना – हड़प्पा संस्कृति की सर्वप्रमुख विशेषता इसका नगर नियोजन है। हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की खुदाई में अत्यधिक समरूपता देखने में आई है, यद्यपि कहीं-कहीं पर प्रादेशिक रूप से विविधताएँ भी देखने में आती है। नगरों, गलियों, मकानों के ढाँचों, ईंटों के आकार और नालों इत्यादि की योजना में एकरूपता दिखाई देती है। लगभग सभी मुख्य स्थलों (हड़प्पा मोहनजोदड़ो, कालीबंगा और अन्य) को दो भागों में विभाजित किया गया है, पश्चिम की ओर एक ऊँचे चबूतरे पर बना किला और आबादी के पूर्वी भाग में बना निचला नगर। किलों में बड़े-बड़े ढाँचे बने हुए हैं जो शायद शासकीय या धार्मिक अनुष्ठानों के केन्द्रों के रूप में कार्य करते होंगे। रिहायशी भवन निचले नगर में बने हुए हैं।
➲ सड़कें एवं सफाई – सड़कें मोहनजोदड़ो की प्रमुख विशेषता थी यहाँ की मुख्य सड़क 9.15 मीटर चौड़ी थी। 1 जिसे पुराविदों ने राजपथ कहा है। अन्य सड़कों की चौड़ाई 2.75 से 3.66 मीटर तक थी। सड़कें एक दूसरे को समकोण. पर काटती थी जिससे नगर कई खण्डों में विभक्त हो गया था। सड़कें मिट्टी की बनी थी एवं इनकी सफाई की समुचित व्यवस्था थी। कूड़ा इकट्ठा करने हेतु एक अन्तराल पर गड्ढे खोदे जाते थे अथवा कूड़ेदान रखे जाते थे। कूड़े दान ढँकने की व्यवस्था होती थी।
➲ जल निकास प्रणाली – मोहनजोदड़ो के नगर नियोजन की एक और प्रमुख विशेषता यहाँ की प्रभावशाली जल निकास प्रणाली थी। यहाँ के अधिकांश, भवनों में निजी कुएँ व स्नानागार होते थे। भवन के कमरों, रसोई, स्नानागार, शौचालय आदि सभी का पानी भवन की छोटी-छोटी नालियों से निकलकर गली की नालियों में आता था। गली की नाली को मुख्य सड़क के दोनों ओर बनी पक्की नालियों से जोड़ा गया था मुख्य सड़क के दोनों ओर बनी नालियों को पत्थरों अथवा शिलाओं द्वारा ढँक दिया जाता था। नालियों की सफाई एवं कूड़ा करकट को निकालने के लिए बीच-बीच में नर मोखे (मेन होल) भी बनाए गये थे। नालियों की इस प्रकार की अद्भुत विशेषता किसी अन्य समकालीन नगर में देखने को नहीं मिलती।
➲ स्नानागार – मोहन जोदड़ो का एक प्रमुख सार्वजनिक स्थल है यहाँ के दुर्ग में स्थित विशाल स्नानागार। यह 39 फुट ( 11-88 मीटर लम्बा, तथा (7.01 मीटर) चौड़ा एवं 8 फुट (2 44 मीटर) गहरा है। इसमें उतरने के लिए उत्तर एवं दक्षिण की ओर सीढ़ियाँ बनी है। स्नानागार का फर्श पक्की ईंटों से बना है। संभवत: इस विशाल स्नानागार का उपयोग ‘आनुष्ठानिक स्नान’ हेतु होता होगा। स्नानागार से जल के निकास की भी व्यवस्था थी एवं स्वच्छ पानी को एक कुएँ द्वारा स्नानागार में लाया जाता था । वस्तुतः यह स्नानागार तत्कालीन उन्नत तकनीकी का परिचायक है। मार्शल महोदय ने इसी कारण इसे तत्कालीन विश्व का आश्चर्यजनक निर्माण बताया है।
➲ अन्नागार – मोहन जोदड़ो में ही 45.75 मीटर लम्बा एवं 22: 86 मीटर चौड़ा एक अन्नागार मिला है। हड़प्पा दुर्ग में भी 12 धान्य कोठार खोजे गए हैं। ये दो कतारों में छः छः की संख्या में है। ये धान्य कोठार ईंटों के चबूतरों पर है एवं प्रत्येक का आकार 15.23 मीटर x 609 मीटर है। अन्नागार में हवा आने-जाने की व्यवस्था थी अन्नागार का सुदृढ़ आकार-प्रकार हवा आने जाने की व्यवस्था तथा इसमें अन्न भरने की व्यवस्था निःसंदेह उच्च कोटि की थी।
➲ ईंटें – हड़प्पा सभ्यता के नगरों में आग में पकाई गई ईंटों का प्रयोग भी यहाँ के नगर नियोजन की एक अद्भूत विशेषता है। ईंटें चतुर्भुजाकार होती थी। मोहन जोदड़ो से प्राप्त सबसे बड़ी ईंट का आकार 51.43 26 27 × 6.33 से.मी. है। सामान्यत: 2794 x 1397 6 35 से.मी. थी ईंटें प्रयुक्त हुई है। उल्लेखनीय बात यह है कि समकालीन मिश्र की सभ्यता में भी पक्की ईंटों के स्थान पर धूप में सुखाई ईंटों का प्रयोग होता था। मेसोपोटामिया में यद्यपि पक्की ईंटों का प्रयोग होता था किन्तु काफी सीमित मात्रा में इस प्रकार हड़प्पा सभ्यता की सर्वप्रमुख विशेषता यहाँ की नगर नियोजन प्रणाली थी-
- हड़प्पा सभ्यता में परंम्परागत परिवार ही सामाजिक इकाई थी। उत्खनन में प्राप्त बहुसंख्यक नारी मूर्तियों की प्राप्ति से संकेत मिलता है कि उनका परिवार मातृ सत्तात्मक था ।
- हड़प्पा सभ्यता के लोग शाकाहारी एवं मांसाहारी दोनों प्रकार का भोजन करते थे। खुदाई में प्राप्त सुइयो से संकेत मिलता है कि ये लोग सिले हुए वस्त्र पहनते थे।
- केश विन्यास प्रचलित था। स्त्रियाँ जूड़ा बाँधती थी तथा पुरुष लम्बे-लम्बे बाल तथा दाढ़ी मूँछ रखते थे। लोग आभूषणों के शौकीन थे विविध प्रकार के आभूषण – कण्ठहार, कर्णफूल, हँसली, भुजबंध, कड़ा अंगूठी, करधनी आदि पहने जाते थे।
- शृंगार प्रसाधन के भी हड़प्पावासी शौकीन थे, मोहन जोदड़ो की नारियाँ कामल, पावडर आदि से परिचित थी। शीशे, कंधे, ताँबे के दर्पण का प्रयोग होता था। चन्हुदड़ो से लिपिस्टिक के अस्तित्व का भी संकेत मिलता है। हड़या सभ्यता के लोगों के आभूषण बहुमूल्य पत्थरों, हाँथी दाँत, हड्डी एवं शंख से बने होते थे।
- मिट्टी एवं धातुओं से निर्मित तरह-तरह के बर्तनों का प्रयोग करते थे। फर्श पर बैठने के लिए चाइयों के साथ- साथ पलंग व चारपाई से भी परिचित थे। यहाँ के लोग आमोद-प्रमोद के प्रेमी थे। पासा इस कार का प्रमुख खेल था।
- सिंधु घाटी की खुदाई में बहुत से खिलौने मिले हैं जो बहुत ही कौतूहल जनक है। एक बैल खिलौना सिर हिलाता है। एक हाथी मिला है जिसका सिर दबाने से ध्वनि उत्पन्न होती है। यहाँ प्राप्त नर्तकी की मूर्ति से संकेत मिलता है कि नृत्य भी मनोरंजन का प्रिय साधन रहा होगा, ये लोग गाने-बजाने के भी शौकीन थे।
- मछली फसाने के काँटें एवं एक मुहर पर तीर से हिरन को मारते दिखाया जाना संकेत देते हैं कि ये लोग आखेट के भी शौकीन थे।
- हड़प्पा के समाज में विविध व्यवसायों से जुड़े लोग शामिल थे। इनमें पुजारी, योद्धा, किसान, व्यापारी, कारीगर, राजगीर, बुनकर, सुनार आदि थे। हड़प्पा और लोथल जैसे स्थानों पर मिले मकानों के ढाँचों से पता चलता है कि विभिन्न वर्गों के लोगों द्वारा आवास के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के भवनों का उपयोग होता था। इससे स्पष्ट है कि समाज में वर्ग विभाजन था ।
- समाज में महिलाओं को सम्मान जनक स्थान प्राप्त था। स्त्रियों में पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। सभ्यता के विभिन्न स्थलों की खुदाइयों से उपलब्ध मातृदेवी की असंख्य मूर्तियाँ इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है कि स्त्रियों को केवल मनोरंजन और घर संभालने का साधन ही नहीं समझा जाता था अपितु मातृदेवी के रूप में उनकी पूजा भी की जाती थी।
➲ कृषि – हड़प्पावासियों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। यहाँ प्राप्त विशाल अन्नागार के अवशेषों से स्पष्ट होता है। कि खाद्यान्न आवश्यकता से अधिक उत्पादित होते थे। विभिन्न स्थलों पर गेहूँ, जौ, दाल, सफेद चना, तिल, राई और मटर आदि के दाने मिले होते हैं। चावल के दाने अपेक्षाकृत कम पाए गये हैं किन्तु गुजरात तथा हरियाणा के पुरास्थलों से चावल के अवशेष मिले हैं जिससे स्पष्ट है कि चावल की भी खेती होती थी। रागी, कोदो, सावां, ज्वार, और फल्लियों की भी खेती की जाती थी। सिंन्धु सभ्यता के लोगों ने सबसे पहले कपास का उत्पादन करना प्रारंभ किया।
➲ कृषि प्रौद्योगिकी – खुदाई में प्राप्त विभिन्न साक्ष्यों से हमें हड़प्पा कालीन कृषि प्रौद्योगिकी की जानकारी मिलती है। खेती सामान्यतः नदियों के किनारे की जाती थी। खेतों की जुताई के लिए लकड़ी के हल का प्रयोग किया जाता था। मुहरों पर किए गए रेखांकन एवं मृण्मूर्तियाँ से स्पष्ट होता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोगों को बैल की जानकारी थी और वे खेतों की जुताई के लिए बैल का प्रयोग करते थे। फसल काटने के लिए ताँबे और पत्थर के हँसियों का प्रयोग किया जाता था लकड़ी के हत्थों में बिठाए गए पत्थर के फलकों का प्रयोग फसल काटने के औजारों के रूप में किया जाता था। हड़प्पा सभ्यता में व्यवस्थित सिंचाई का कोई महत्वपूर्ण साक्ष्य नहीं मिला है।अफगानिस्तान में शोध नामक हड़प्पा स्थल से नहरों के कुछ अवशेष उपलब्ध हुए है किन्तु पंजाब और सिंध में ऐसे कोई अवशेष नहीं मिले हैं। हो सकता है कि प्राचीन नहरों में बहुत पहले ही गाद भर गई हो। विद्वान इतिहासकारों का विचार है कि संभवत: कुँओं से प्राप्त पानी का प्रयोग सिंचाई के लिए किया जाता था। धौलावीरा में मिले जलाशयों का प्रयोग भी संभवत: सिंचाई के उद्देश्य से जल इकट्ठा करने के लिए किया जाता था।
➲ पशुपालन – पशुपालन भी हड़प्पा सभ्यता के लोगों का मुख्य व्यवसाय था। खुदाई में प्राप्त मुहरों पर बने चिरों से पता चलता है कि ये बैल, गाय, भैंस, बकरी, भेड़, सुअर आदि पालते थे। कुमाव बिल्ली भी पालतू पशु थे। हड़पा निवासियों को कूबड़ वाला सांड विशेष प्रिय था। वे शायद गधे तथा कैंट भी पालते थे जो बोझा होने का काम करते थे। गुजरात में बसे लोग हाथी भी पालते थे। प्रमाण पूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि ये घोड़े से परिचित थे या नहीं।
- शिल्प तथा उद्योग- हड़प्पा सभ्यता के लोगों की शिल्प तथा उद्योग संबंधी प्रतिभा उच्चकोटि की थी। मिट्टी व धातु के बर्तन बनाना, मूर्तियाँ, औजार एवं हथियार बनाना, सूत एवं ऊन की कताई, बुनाई एवं रंगाई, आभूषण बनाना, मनके बनाना लकड़ी का सामान विशेष रूप से कृषि संबंधी उपकरण, बैलगाड़ियाँ तथा नौकाएँ बनाना आदि उनके महत्वपूर्ण शिल्प उद्योग थे।
- व्यापार वाणिज्य एवं माप तौल के बाट – हड़प्पा सभ्यता के निवासियों को व्यापार तथा वाणिज्य में काफी रुचि थी। उनके आन्तरिक तथा बाह्य दोनों ही व्यापार काफी उलट थे। इस सभ्यता के प्रमुख स्थल हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो ही व्यापार के प्रसिद्ध केन्द्र थे। दानों के बीच की दूरी 483 कि. मी. थी। किन्तु परस्पर व्यापारिक मार्गों द्वारा जुड़े हुए थे। व्यापार प्रमुखतः जलमार्ग द्वारा होता था किन्तु स्थल मार्गों से भी वे परिचित थे। सिक्कों का प्रचलन न होने के कारण संभवतः वस्तु विनिमय के माध्यम से व्यापार होता था।
- माप तौल के बाट – हड़प्पा वासी तौल के लिए विभिन्न बाटों का प्रयोग करते थे जिनमें 1, 2, 4, 8, 16, 32 एवं 164 का अनुपात होता था। सर्वाधिक प्रयोग वे 16 इकाई के बाट का करते थे। नापने के साधनों से परिचित थे एवं दशमलव प्रणाली का प्रयोग भी जानते थे। यहाँ के बटखरों की तौल की प्रामाणिकता मैसोपोटामिया और मिश्र के बटखरों से कहीं अधिक थी।
- विदेशी व्यापार – चूँकि हड़प्पा सभ्यता के नगरों में कच्चे माल तथा प्राकृतिक संपदाओं का अभाव था अतः यहाँ के निवासी पास-पड़ोस के राज्यों एवं विदेशों से इन्हें प्राप्त करते थे। उदाहरणार्थ- सोना-ईरान व अफगानिस्तान से, चाँदी – ईरान व अफगानिस्तान से, ताँबा – बलूचिस्तान, अरब व राजस्थान की खेतड़ी खानों से, लाजवर्द बख्शां ( अफगानिस्तान) से, सीसा ईरान और अफगानिस्तान से, सेलखड़ी-बलूचिस्तान और राजस्थान से सुलेमान पत्थर सौराष्ट्र, व पश्चिमी भारत से, नीलमणि महाराष्ट्र से, अलास्टर बलूचिस्तान से शंख, कौड़ियाँ- सौराष्ट्र व दक्षिण भारत से मँगाते थे। बाह्य व्यापार संभवतः जल मार्ग द्वारा ही किया जाता था। लोथल (गुजरात) से गोदीबाड़ा (बन्दरगाह) होने के प्रमाण मिले है। नाव का एक चित्र मोहन जोदड़ो में एक बर्तन पर उत्कीर्ण मिला है। मिश्र, सुमेर, थ्रीट तथा मेसोपोटामिया देशों के साथ व्यापारिक संबंधों के पर्याप्त साक्ष्य मिलते हैं। मेसोपोटामिया से प्राप्त सिन्धु सभ्यता संबंधी अभिलेखों में इसका नाम मेलूहा मिलता है। मेसोपोटामिया के पुरालेखों में सिन्धु क्षेत्र (मेलूहा) एवं मेसोपोटामिया के बीच दो मध्यवर्ती व्यापार केन्द्र दलमुन और माकन का उल्लेख है। इनमें दलमुन की पहचान फारस की खाड़ी स्थित बहरीन से की गई है मोहन जोदड़ो में प्राप्त एक कीलदार अभिलेख में भी सैन्धव क्षेत्र एवं मेसोपोटामिया के बीच व्यापारिक संबंधों की पुष्टि होती है।
5. धार्मिक जीवन- हड़प्पा सभ्यता के धार्मिक जीवन के बारे में किसी भी प्रकार का लिखित साहित्य या स्मारक उपलब्ध नहीं है। उत्खनन में प्राप्त अवशेषों के आधार पर ही हम इनके धार्मिक स्वरूप का अनुमान लगा सकते हैं। इस आधार पर यहाँ के धार्मिक जीवन की विशेषताएँ निम्नलिखित थी-
- मिश्र अथवा मेसोपोटामिया की तरह हड़प्पा संस्कृति में कोई मंदिर प्राप्त न ही हुआ है, न ही ऐसा कोई भवन मिला है जिसे मंदिर की संज्ञा दी जा सके। खुदाई में प्राप्त मिट्टी की मूर्तियों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यहाँ मातृ देवी की पूजा होती थी ।
- एक मूर्ति में स्त्री के गर्भ से एक पौधा निकलता हुआ दिखाया गया है जो संभवतः पृथ्वी देवी की मूर्ति है। अतः संभव है कि हड़प्पावासी धरती को उर्वरता की देवी मानकर उसकी पूजा करते थे।
- मैके महोदय को मोहन जोदड़ो से एक ऐसी मुद्रा प्राप्त हुई है जिसमें तीन मुख वाला एक पुरुष योग मुद्रा में बैठा है, इसके तीन सींग है। इसके बाँयी ओर एक गैंडा और भैंसा है तथा दाँयी ओर एक हाथी और एक व्याघ्र, इसके सम्मुख एक हिरण है। इसकी तुलना पशुपति से की गई है। हड़प्पा सभ्यता से बहु संख्या में लिंग योनि की प्राप्ति लिंग पूजा के संकेत देते हैं।
- वृक्ष पूजा— ये लोग वृक्ष (विशेषत: पीपल) की पूजा करते थे क्योंकि मोहन जोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर दो जुड़वाँ पशुओं के शीर्ष पर 9 पीपल की टहनियाँ दिखाई गई है।
- कूबड़ वाला बैल विशेष पूजनीय था। नाग पूजा के संकेत भी मिले हैं। बड़ी संख्या में प्राप्त ताबीज संकेत देते हैं कि ये लोग तंत्र-मंत्र में भी विश्वास रखते थे।
- मोहन जोदड़ो में वामवर्ती और दक्षिणवर्ती दोनों ही प्रकार के स्वास्तिक पर्याप्त संख्या में मिले हैं। स्वास्तिक का संबंध सूर्य पूजा से हो सकता है। कालीबंगा एवं लोथल से ईंटों की बनी बेदी मिली है, जो अग्नि पूजा का साक्ष्य है। कालीबंगा के हवनकुण्ड से यज्ञ का भी साक्ष्य मिलता है।
- मृतक संस्कार – मृतक संस्कार पर निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। मार्शल महोदय के अनुसार सिन्धु निवासी शवों का तीन प्रकार से संस्कार करते थे।
➲ पूर्ण समाधिकरण – इस विधि में सम्पूर्ण शव को भूमि के नीचे गाड़ दिया जाता था।
➲ आशिक समाधिकरण – इस विधि में पशु पक्षियों के खाने के बाद शव के बचे हुए अवशेषों को गाड़ा जाता
➲ दाह कर्म – इसमें शव जला दिया जाता था एवं उसकी बची हुई राख को गाड़ दिया जाता था। शवों को प्रायः उत्तर दक्षिण दिशा में लिटाया जाता था, जिसमें सिर उत्तर की ओर और पाव दक्षिण की ओर होते थे। मृतकों को अलग-अलग संख्या में उनके साथ मिट्टी के बर्तन रखकर दफनाया जाता था। कुछ कब्रों में शवों के साथ चूड़ियाँ, मोती, ताँबे के दर्पण आदि वस्तुएँ रखकर दफनाया जाता था। इससे यह भी संकेत मिलता है कि हड़प्पावासी पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। लोथल में तीन ऐसी कब्रें मिली है जिनमें महिला और पुरुष को इकट्ठे दफनाया गया था। कालीबंगा में प्रतीकात्मक रूप से दफनाने का एक साक्ष्य मिला है, यानि एक कब्र मिली है जिसमें बर्तन रखे हैं परन्तु कोई हड्डियाँ या कंकाल नहीं है। रीति-रिवाजों में पाई गई इन विविधताओं से पता चलता है कि हड़प्पा सभ्यता में संभवतः भिन्न-भिन्न प्रकार के धार्मिक विश्वास प्रचलन में थे।
6. विज्ञान एवं कला – हड़प्पा सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी। नगरीय सभ्यता का ही प्रमाण हैं कि संस्कृति के निर्माताओं ने विज्ञान एवं कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की थी। विज्ञान एवं कला की प्रगति का विवरण हम निम्नलिखित बिन्दुओं में देख सकते हैं।
➲ लिपि (लेखन कला ) – हड़प्पा सभ्यता के लोग लेखन कला से परिचित थे। मुद्राएँ, ताम्र पट्टियों, मिट्टी को लघु पट्टिकाओं, कुल्हाड़ियों, मृदभाण्डों आभूषणों, अस्थि घड़ों और एक प्राचीन सूचना पट्ट पर हड़प्पाई लिपि के अनेक नमूने मिले हैं, किन्तु दुर्भाग्य वश अभी तक इस लिपि को पढ़ने में सफलता नहीं मिली है।
चित्र : एक प्राचीन सूचनापट्ट के अक्षर
हड़प्पा की मुद्राओं पर अनेक प्रकार के चिह्न या आकृतियाँ बनी है। हाल ही में किए गए अध्ययनों से यह संकेत मिले हैं कि हड़प्पा को लिपि में लगभग 400 चिह्न है और इसे दाँई से बाँई और को लिखा जाता था। ऐसा समझा जाता है कि ये अपने भावों को सीधे व्यक्त करने के लिए किसी भाव चित्र यानि चित्राकृति चिह्न या अक्षर का प्रयोग करते थे। हमें उनकी भाषा को कोई जानकारी नहीं है, परन्तु कुछ विद्वानों को विश्वास है कि वे ‘बाहुई’ भाषा बोलते थे, जिस बोली को पाकिस्तान के बलूची लोग आज भी बोलते हैं। तथापि अभी इस बारे में साफतौर से कुछ नहीं कहा जा सकता।
➲ चित्रकला – हड़प्पा सभ्यता के लोगों का चित्रकला से लगाव था। वे मिट्टी के मटकों, घड़ों, कटोरियों, प्लेटों आदि पर सुन्दर चित्रकारी करते थे। हड़प्पाई मृदभाण्डों पर सामान्य रूप से वृत्त या वृक्षों की आकृतियाँ मिलती है। कुछ पर मनुष्यों की आकृतियाँ भी दिखाई देती है। हड़प्पा सभ्यता के लोग विभिन्न रंगों से पशु-पक्षी, वृक्ष, बेल, वृन्त चतुर्भुज, त्रिभुज आदि के चित्र बनाते थे।
➲ मूर्तिकला – हड़प्पावासी मूर्ति निर्माण कला में पारंगत थे। वे मिट्टी पत्थर तथा विभिन्न धातुओं से सुन्दर एवं कलात्मक मूर्तियों का निर्माण करते थे। सभ्यता के विभिन्न स्थलों से अनेक मूर्तियाँ मिली है जिनमें से मोहनजोदड़ो से प्राप्त योगी की अवास मूर्ति और हड़प्पा से मिली दो छोटी मूर्तियाँ विशेष उल्लेखनीय है। कांस्य मूर्तियाँ अपेक्षाकृत बहुत मिली है। उनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है मोहन जोदड़ो से मिली एक नर्तकी की मूर्ति, यह मूर्ति हड़प्पा सभ्यता की संभवतः सर्वाधिक प्रसिद्ध कलाकृति है। मोहन जोदड़ो से मिली दाढ़ी वाले सिर की प्रस्तर प्रतिमा भी हड़प्पा सभ्यता की संभवतः सर्वाधिक प्रसिद्ध कलाकृति है। मूर्ति विचारमग्न मुद्रा में है कुछ विद्वान इसे पुजारी की अर्ध प्रतिमा मानते हैं। हड़प्पा की खुदाई में पाई गई दो पुरुषों की अर्धमूर्तियाँ भी उस काल की अनुपम कलाकृतियाँ है। इनमें एक लाल बलुआ पत्थर की है और दूसरी धूसर पत्थर की भैंसों और भेड़ की छोटी-छोटी काँस्य प्रतिमाओं में पशुओं की मुद्राओं को सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया गया है। खिलौनों के रूप में हड़प्पा और चन्हुदड़ों से मिली काँसे की दो गाड़ियाँ उल्लेखनीय है। कूबड़दार एवं कूबड़रहित सांडों तथा स्त्री पुरुषों की पकी मिट्टी की अनेक मूर्तियाँ मिली है। इनमें पुरुष मूर्तियों की अपेक्षा स्त्री मूर्तियों की संख्या अधिक है।
➲ धातुकर्म – सिन्धु सभ्यता के एक प्रमुख स्थल लोथल से ताँबे एवं काँसे की कुछ वस्तुएँ मिली है। मोहन जोदड़ो से भी एक 10.5 से.मी. ऊँची काँसे की एक नर्तकी बाला की मूर्ति मिली है। इससे पता चलता है कि वे कच्ची धातु से शुद्ध ताँबा निकालने की तकनीकी से परिचित थे। ताँबा चूँकि 1083°C पर पिघलता है, अतः निश्चित रूप से वे इतना ताप पैदा करने की तकनीकी से भी परिचित रहे होंगे। संभवत: सिन्धुवासी राजस्थान स्थित ताँबे की खानों से कच्ची धातु प्राप्त करते थे। जैसा कि हम जानते हैं कि 75 से 90% तक ताँबे में 10 से 25% तक टिन मिलाने पर काँसा तैयार होता है। अतः सिन्धु सभ्यता में काँसे की मूर्ति का मिलना इस बात का संकेत करता है कि वे लोग मिश्र धातु काँसा बनाने की तकनीकी से परिचित थे।
➲ गोदी एवं नौका बनाना – लोथल में ईंटों से निर्मित 128 मीटर लम्बी एवं 37 मीटर चौड़ी एक आयताकार गोदी (डाकयार्ड) मिली है। इससे पता चलता है कि वे नौका एवं गोदो निर्माण की तकनीकी से परिचित थे। मोहन जोदड़ो के एक बर्तन पर नाव का चित्र बना हुआ है। इन नौकाओं के द्वारा विदेशों से व्यापार होता होगा। मेसोपोटामिया के एक अभिलेख में मेलुहा (सिन्धु क्षेत्र) के साथ व्यापार संबंधों की चर्चा है। इसका प्रमाण यह भी है कि- (i) लोथल से फारस की मोहरें मिली है, (ii) मेसोपोटामिया में हड़प्पा की सीलें मिली है, (iii) कालीबंगा से बेलनाकार मोहरें (मेसोपोटामिया की विशेषता थी) मिली है।
➲ माप तौल की तकनीकी – हड़प्पा सभ्यता के लोग माप तौल को तकनीको से परिचित थे, सिन्धु सभ्यता में करीब 150 बाट मिले हैं। सबसे बड़ा बाट 1375 बाट ग्राम का एवं सबसे छोटा बाट 0.87 ग्राम का है। ये बाट 1, 2, 4, 8, 16, 32, 64 के अनुपात में है। यहाँ 16 के अनुपात का विशेष महत्व रहा है। हड़प्पा वासी मापना भी जानते थे। बराबर दूरी पर माप लगे डण्डे प्राप्त हुए हैं। लम्बाई की इकाई 1 फुट थी। जिसमें 37-60 से. मी. होते थे। एक हाथ की इकाई लगभग 51-8 से. मी. से 53-6 से.मी. होती थी।
➲ चिकित्सा ज्ञान – सिन्धु सभ्यता के पुरावशेषों में मोहन जोदड़ो से शिलाजीत का टुकड़ा मिला है। शिलाजीत बलवर्धक होने के साथ-साथ कई व्याधियों को दूर करने में सहायक है। अतः यह संभावना भी है कि सिन्धु वासी चिकित्सा विज्ञान से भी परिचित रहे होंगे। कालीबंगा से एक ऐसा कपाल प्राप्त हुआ है। जिसको कि मस्तिष्क शोध की बिमारी थी। अतः संभव है कि इस मस्तिष्क पर इस बीमारी से संबंधित कोई शोध किया गया हो।
हड़प्पा सभ्यता का पतन :
हड़प्पा की सभ्यता 1900 ई. तक फलती फूलती रही। इस सभ्यता के बाद की अवधि को नगरीय सभ्यता के बाद के चरण (उत्तरवर्ती हड़प्पा काल) के रूप में जाना जाता है। इस काल की विशेषता को इस प्रकार रेखांकित किया गया कि इसमें नगर योजना, लेखन कला, माप-तौलों में एकरूपता, मिट्टी के बर्तनों में समानता इत्यादि जैसे लक्षण धीरे-धीरे लुप्त होने लगे थे। यह अधोपतन 1900 ई. पूर्व 1400 ई. पूर्व के मध्य में देखने को आया। आबादी क्षेत्र भी सिकुड़ने लगा था।
1. प्राकृतिक आपदा ( बाढ़ व भूकंप ) – कुछ विद्वानों का सुझाव है कि बाढ़ और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने इस सभ्यता को खत्म किया होगा। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भूकंप के परिणामस्वरूप सिन्धु नदी के निचले मैदानी, बाढ़ वाले क्षेत्रों का स्तर ऊँचा उठ गया होगा। इससे समुद्र की तरफ जाने को नदी के तल मार्ग में रूकावट आ गई होगी, जिससे मोहन जोदड़ो का नगर डूब गया होगा। परन्तु इससे केवल मोहन जोदड़ो के खत्म होने का उल्लेख मिलता है, न कि पूरी सभ्यता का ।
2. नदी के मार्ग में परिवर्तन- कुछ विद्वानों के मतानुसार घगगर- हाकरा नदी के मार्ग में परिवर्तन आने के कारण शुष्क बंजर भूमि बढ़ती गई होगी, जिसकी वजह से पतन हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार 2000 ई.पू. के आस-पास बंजरता की परिस्थिति बढ़ती गई, इससे कृषि उत्पादन पर प्रभाव पड़ा होगा, जिससे इसका लोप हुआ।
3. सिन्धु नदी का मार्ग बदलना- एच. डी. लैम्ब्रिक के मतानुसार सिन्धु नदी के मार्ग बदलने से मोहनजोदड़ो जैसे महत्वपूर्ण नगर का विनाश हो गया। पानी की कमी के कारण आस-पास के अनाज पैदा करने वाले गाँव के लोग उस क्षेत्र को छोड़कर चले गये। ऐसा बार बार होता रहा जिसके परिणामस्वरूप वे सभी क्षेत्र जो अपनी उत्पादकता और संपन्नता के लिए नदी जल पर आश्रित थे- बंजर और वीरान होने लगे।
4. बर्बर आक्रमण- आर. ई. एम. व्हीलर के मतानुसार हड़प्पा सभ्यता के पतन का कारण आर्यों के आक्रमण थे। लेकिन आँकड़ों के आलोचनात्मक व गंभीर विश्लेषण के आधार पर इस मत को पूरी तरह नकार दिया गया है।
5. पर्यावरण संबंधी असंतुलन- अनेक विद्वानों के मतानुसार हड़प्पा सभ्यता का पतन पर्यावरण संबंधी असंतुलन के कारण हुआ। मनुष्यों एवं पशुओं की बढ़ती हुई आबादी के कारण खाद्यानों की समस्या पैदा होने लगी कृषि भूमि के लिए वनों की कटाई और ईंधन के लिए इमारती लकड़ी के प्रयोग तथा जल संसाधनों के दुरुपयोग के कारण भूमि बंजर हो गई और नदियों में गाद भर गई। पर्यावरण के असन्तुलन के कारण बाढ़, सूखा और अकाल की स्थितियाँ बार-बार उत्पन्न होने लगी। ऐसा प्रतीत होता है कि परिस्थितियों से विवश होकर लोग धीरे-धीरे उन क्षेत्रों में बसने के लिए जाने लगे जहाँ जीविका की बेहतर संभावनाएँ थी। संभवतः इसी कारण हड़प्पा समुदाय सिन्धु से दूर गुजरात और पूर्वी क्षेत्रों की ओर चले गए। उपलब्ध साक्ष्यों से भी संकेत मिलता है कि 1800 ई. पूर्व तक चोलिस्तान जैसे क्षेत्रों में अधिकांश विकसित हड़प्पा स्थलों का परित्याग कर दिया गया था। इनके स्थान पर गुजरात, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तरप्रदेश की नयी बस्तियों में आबादी बढ़ने लगी। इस प्रकार कोई भी एक अकेला ऐसा कारण नहीं है जिससे संपूर्ण सभ्यता के विनाश का पता लग सके। ज्यादा से ज्यादा इनसे कुछ शिष्ट स्थलों या क्षेत्रों के नष्ट होने के संबंध में ही पता चल सकता है। अतः प्रत्येक सिद्धांत की अलोचना हुई। फिर भी पुरातात्विक साक्ष्यों से संकेत मिलता है कि हड़प्पा सभ्यता का पतन अचानक नहीं हुआ, बल्कि धीरे-धीरे हुआ और अन्त में यह सभ्यता अन्य सभ्यताओं में घुलती मिलती चली गई।