मानव भूगोल में नियतिवाद क्या है? आलोचना एवं विकास।

मानव भूगोल में नियतिवाद या निश्चयवाद क्या है?

नियतिवादी संकल्पना के अनुसार प्राकृतिक वातावरण सर्वशक्तिमान है तथा उसका प्रभाव किसी-न- किसी रूप में मानव के क्रियाकलापों पर अवश्य पड़ता है। इस विचारधारा में मानव को भूतल की उपज माना गया है।

मानव भूगोल में नियतिवाद क्या है? आलोचना एवं विकास।

किसी भी क्षेत्र में मानव की आकृति, भोजन, वस्त्र, मकान, अर्थव्यवस्था, उद्योग, संस्कृति, धर्म, सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था आदि वातावरण से ही निर्धारित होते हैं। इसीलिए इसे वातावरणवाद (Environmentalism) भी कहा जाता है। नियतिवादी विचारधारा के प्रमुख समर्थक यूनानी विद्वान् (हिप्पोक्रेटीज, अरस्तु, स्ट्रैबो आदि), जर्मन भूगोलवेत्ता (हम्बोल्ट, रिटर, रैटलेज आदि), फ्रांसीसी विद्वान् (बोदाँ, मोण्टेस्क्यू, डिमोलिन्स आदि) तथा अमरीकी भूगोलवेत्ता (कुमारी सेम्पल) हैं।

प्राचीन ग्रीक भूगोलवेत्ता हिप्पोक्रेटीज (Hippocrates, 420 ई.पू.) ने अपनी पुस्तक ‘वायु, जल और स्थान’ (On Airs, Waters and Places) में लिखा है, “यदि कोई व्यक्ति स्वास्थ्य विज्ञान का अध्ययन करना चाहता है तो उसे सर्वप्रथम मौसम का अध्ययन करना चाहिए, उसे ठण्डी व गर्म हवाओं के प्रभाव तथा जल के गुण-धर्म का निरीक्षण करना चाहिए।” अरस्तु (Aristotle) के अनुसार मानव की प्रवृत्तियाँ वातावरण की देन हैं। उसके मत में ‘ठण्डे देशों में रहने वाले लोग बहादुर होते हैं, परन्तु उनमें पड़ोसी देशों पर राज्य करने की क्षमता नहीं होती क्योंकि उनमें राजनैतिक संगठन नहीं होता। एशिया की गर्म जलवायु में रहने वाले लोग कम साहसी या गुलाम प्रवृत्ति के होते हैं । 

हेरोडोटस (Herodotus) ने मिस्र मे संस्कृति एवं सभ्यता के विकास का श्रेय वन्हन की मिट्टी, नील नदी का जल, स्वच्छ आकाश आदि प्राकृतिक तत्वो को दिया है, जिनके फलस्वरूप अन्य मरुस्थलीय  भागों की अपेक्षा यहाँ पर सभ्यता का अधिक विकास हुआ। इसी प्रकार अरस्तु ने भी अपनी रचना ‘राजनीति’ नील में प्राकृतिक तथ्यों का प्रभाव मनुष्य के मानसिक एवं भौतिक गुणों पर बतलाया है। इन्होंने यह व्यक्त निया कि यूरोप की ठण्डी जलवायु में व्यक्ति बहादुर होते है। किन्तु तकनीकी चातुर्य एवं विचारों उनमें अभाव होता है। जबकि एशिया की गर्म जलवायु के लोग विचारशील एवं चतुर होते है।

रोमन भूगोलविद स्ट्रैबो (Strebo) ने भी यह माना है कि वातावरणीय कारक भू-उच्च्वाच , जलवायु, वनस्पति आदि मनुष्य की क्रियाओं को प्रभावी व नियन्त्रित करते है। उसने बताया कि शीत प्रदेशों मिट्टी, के लोग हृष्ट-पुष्ट, साहसी और सच्चे होते हैं, उष्ण क्षेत्रों में रहने वाले लोग आलसी, चालाक तथा कामुक होते हैं।

अरब भूगोलशास्त्रियों ने मानव पर जलवायु के प्रभाव की व्याख्या की। उनके मतानुसार विभिन्न जलवायु प्रदेशों में रहने वाले लोगों का शारीरिक गठन, रहन-सहन और उघम भिन्न-भिन्न होते है। उनका मत था कि जिन स्थानों पर पानी की अधिकता होती है वहाँ के लोग प्रसन्न चित्त और  जिन स्थानों पर शुष्कता होती है वहाँ के लोग क्रोधी होते हैं। इन्होंने यह भी बताया कि खानाबदोश (Nomods) लोग सदैव खुले वातावरण में रहने के कारण शक्तिशाली, बुद्धिमान और दृढ़प्रतिज्ञ होते है।

नियतिवाद का वास्तविक विकास अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी में जर्मनी में हुआ। जर्मन भूगोलविदों का आरम्भ से ही यह मत रहा कि वातावरण और मनुष्य का अटूट सम्बन्ध है। सोलहवी शताब्दी के भूगोलवेत्ता बोडिन (Bodin) और मोण्टेस्क्यू (Montesquieu) ने बताया कि देश के इतिहास और राजनीति में भौगोलिक कारकों का सर्वाधिक योगदान होता है। काण्ट (Kant) के अनुसार अत्यधिक गर्म और अत्यधिक ठंडे प्रदेशों के लोगों में कायरता और दासता होती है, क्योंकि उन्हें वातावरण से भोजन प्राप्त करने में कठिनाई होती है। ग्रीनलैण्ड, साइबेरिया और उत्तरी यूरोप के लैप (Lapp) लोग इसीलिए अंधविश्वासी, सुस्त और कायर हैं, जबकि ठण्डे पर्वतीय प्रदेशों में रहने वाले लोग कठोर, परिश्रमी, निर्भीक, प्रसन्न चित्त और होते हैं।

बकल (Buckle) ने अपनी पुस्तक ‘इंग्लैण्ड की सभ्यता का विकास’ (Evolution of British Civilization, 1857) में लिखा कि प्राकृतिक जलवायु भोजन, मिट्टी, समुद्र, वनस्पति आदि की अनुकूलता के कारण ही इंग्लैण्ड के लोग साहसी, परिश्रमी और राष्ट्रीयता के समर्थक है। इनके अनुसार जलवायु, मिट्टी एवं भोजन तीन ऐसे प्रमुख तत्व हैं जो मनुष्य में विभिन्न विचारों को उत्पन्न करते है जिससे एक क्षेत्रीय विशिष्टता या एक क्षेत्रीय गुण निर्धारित होता है। जलवायु, मिट्टी एवं भोजन ये तीनों तत्व परस्पर अन्योन्याश्रित है।

बकल ने जलवायु को श्रमिकों की कार्यक्षमता, दक्षता आदि पर प्रभाव डालने वाले कारकों में प्रमुख माना है। उष्ण क्षेत्रों में श्रमिकों की कार्यक्षमता कम तथा शीतल क्षेत्रों में श्रमिकों में अपेक्षाकृत अधिक स्पूर्ति एवं कार्यक्षमता  है। इसी प्रकार जलवायु का श्रमिकों की मजदूरी पर भी प्रभाव पड़ता है। बकल के अनुसार मनुष्य के विचार, साहित्य, धर्म, कला आदि के वितरण पर जलवायु का प्रभाव होता है। बकल ने इस तथ्य का भी उल्लेख किया है कि भारत, पीरू, मैक्सिको आदि देशों में प्रकृति मनुष्य पर हावी है। अतः वहाँ के लोग धर्मभीरु हो गये हैं। बकल ने ऐतिहासिक घटनाओं को ‘मानव का प्रकृति को रूपान्तरित तथा प्रकृति का मानव को रूपान्तिरित’ (Man modifying nature and nature modifying man) करने का परिणाम माना है। उनके मत में प्राकृतिक शक्तियाँ मानव से कहीं अधिक प्रभावशाली है और यही निश्चयवाद है।

हैकल ( Haeckel 1867 ) ने नियतिवाद की इस विचारधारा को और आगे बढ़ाया तथा ‘पारिस्थिति विज्ञान’ को जन्म दिया। उसने मनुष्य को अन्य जीवों की तरह माना है, जिस प्रकार अन्य जीव अपने वातावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करते हैं, मनुष्य भी अपने वातावरण से अनुकूलन एवं घनिष्ठ  सम्बन्ध स्थापित करता है। डोमोलिन्स (Demolins, 1882) ने भी विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया कि मानव समाज के सभी आर्थिक और सांस्कृतिक कार्य वातावरण से सम्बन्धित होते है।

रिटर (Ritter) ने मानव केन्द्रित भूगोल की विचारधारा में मनुष्य और प्रकृति की पारस्परिक प्रतिक्रियाओं का महत्व बताया। उसके मत में यूरोप महाद्वीप की कटी-फटी तट रेखा के कारण ही यहाँ के लोग कुशल  नाविक बने और उन्होंने नये देशों की खोज की।

रैटजेल (Ratzel) प्रथम भूगोलशास्त्री था, जिसने स्पष्टतः निश्चयवाद की व्याख्या की। इसलिए आधुनिक युग में रैटजेल को ही निश्चयवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादक माना जाता है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Anthropo Geography’ में बताया कि पृथ्वी पर मनुष्य (जनसंख्या) का वितरण प्राकृतिक वातावरण का ही परिणाम है। उसके अनुसार मनुष्य कठोर वातावरण में रहकर भी अपना अनुकूलन करता है। वह यह भी कहता है कि मनुष्य स्वयं वातावरण की ही उपज है और इसलिए वह वातावरण के प्रतिकूल कोई काम नहीं कर सकता। रैटजेल का यह भी विचार था कि मनुष्य ने अन्य जीव-जन्तुओं की भाँति वातावरण से समायोजन कर विकास किया है।

अमेरिकन भूगोलशास्त्री ई.सी. सेम्पल (E. C. Semple) ने जो रैटजेल की शिष्या थी  नियतिवाद को चरम सीमा तक पहुँचा दिया। उसके अनुसार “मनुष्य इस भूतल की उपज है।…. यह पृथ्वी उस मनुष्य की हड्डियों, मांस, मस्तिष्क और आत्मा में प्रवेश कर गयी है।”

हंटिंग्टन (Ellsworth Huntington) महोदय भी इसी संकल्पना के पोषक थे। अपनी पुस्तक मानव भूगोल के सिद्धान्त (Principles of Human Geography) में उन्होंने मानव के प्रत्येक पक्ष, शारीरिक गठन, मानसिक व वैचारिक पक्ष, क्रिया-कलापों तथा गुणों को भी प्रकृति की देन माना है। इनमें भिन्नताएँ वातावरण की भिन्नता के अनुसार उत्पन्न होती है।

सेम्पल ने लिखा है कि मनुष्य मोम के पुतले के समान है, जिस पर प्राकृतिक वातावरण का भरपूर प्रभाव पड़ता है तथा वह उसी के अनुसार अपने को ढालने के लिए विवश है। सैम्पल के अनुसार प्राकृतिक वातावरण मानव के केवल भोजन, वस्त्र, गृह तथा आर्थिक उद्यम को ही नियन्त्रित नहीं करता वरन उसका व्यापक नियन्त्रण मानव के विचारों, भावनाओं एवं धार्मिक विश्वासों पर भी होता है। भूमि की बनावट, जलवायु, मिट्टी, खनिज पदार्थ, वनस्पति तथा पशु आदि प्राकृतिक वातावरण के विभिन्न तत्व मनुष्य के शरीर को ही प्रभावित नहीं करते वरन् उनका व्यापक प्रभाव मानव के जीविकोपार्जन के साधनों, उसके सामाजिक संगठनों, रीति-रिवाजों एवं उसकी संस्कृति पर निश्चित रूप से पड़ता है। 

नियतिवाद की आलोचना

यद्यपि प्राचीन विद्वानों ने प्रकृति की अनन्य शक्ति को ही सर्वोपरि परन्तु आज मनुष्य ने वैज्ञानिक और तकनीकी विकास कर लिया है। नई तकनीकों व उपकरणों की सहायता से उसने प्राकृतिक वातावरण में अभूतपूर्व परिवर्तन किये हैं। यही कारण है कि बीसवी शताब्दी के आरम्भ से ही नियतिवादी विचार की कड़ी आलोचनाएँ की गयीं।

(1) पृथ्वी के अनेक भागों में देखा गया कि समान वातावरण में रहने वाले विविध मानव समूहों में समान प्रतिक्रियाएँ जाग्रत नहीं होती। टुण्ड्रा की समान भौतिक दशाओं में भी उत्तरी कनाडा तथा साइबेरिया में इनके निवासी एस्किमो, लैप्स तथा सेमोयाइस लोगों की आर्थिक और सांस्कृतिक दशाओं में भिन्नता पायी जाती है। 

(2) विद्वानों का मत है कि केवल वातावरण की शक्तियों को सर्वशक्तिमान मान लेना मानव सभ्यता के गौरवपूर्ण इतिहास की अवमानना होगी। कनाडा व साइबेरिया के शीतल भू-भाग में कृषि का विस्तार शुष्क मरूक्षेत्रों सुविधाओं के विकास से हरे-भरे खेतो का निर्माण, शीघ्रगामी वायुयानों व जलयानो द्वारा एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप में कुछ ही घण्टो में पहुँच जाना आदि मानव की शक्ति संगठन व बौद्धिक क्षमता के कुछ उदाहरण है। स्वयं कुछ नियतिवादी विद्वान् यह स्वीकार करते है कि ‘मानव स्वेच्छा’ से प्राकृतिक प्रभावों की अवहेलना कर सकता है। किरचॉफ ने स्पष्ट कहा है कि, “मनुष्य अपनी इच्छाशक्ति  कोई स्वचालित मशीन नहीं है।”

(3) ज्यों-ज्यों एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज की रचना होती है, उस पर वातावरण का प्रभाव कम होता जाता है। नगरी, उद्योगों आदि का विकास भौतिक वातावरण को अपेक्षा मानवीय कारक पर ही निर्भर होता है। डेट्रायट (सं. रा. अ.) में मोटरगाडी निर्माण उद्योग या रसायन उद्योग को स्थापना भौतिक वातावरण के कारण नहीं हुई है, बल्कि मानवीय पसन्द या चयन के कारण हुई है। रूस जो भौतिक वातावरण के प्रभाव के कारण अनेक शताब्दियों तक पिछड़ा रहा वह सन् 1917 को क्रान्ति के पश्चात् देखते ही देखते एक महान राष्ट्र बन गया।

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