समास की परिभाषा जानने से पहले उसके परिचय को जानना अति आवश्यक है, तो आज इस लेख में हम समास का परिचय, समास की परिभाषा, उसके भेद और उदाहरण सहित समास से जुड़े अन्य जानकारीयाँ भी आपको दिंगे।
यदि कुछ शब्दों पर हम ध्यान दें जैसे- मानव समाज, मृत्यु-निनाद, समसुरता, विश्व धर्म- महासभा, स्त्री-पुरुष, अमेरिकावासी, मतमतान्तर, सर्वश्रेष्ठ । तो पता चलता है कि इनमें दो या दो से अधिक शब्द हैं, जो मिलकर एक शब्द बनाते हैं। जैसे- विश्व, धर्म, महा और सभा, ये चार शब्द मिलकर एक शब्द बनाते हैं- विश्वधर्म महासभा । इस प्रकार जब दो या दो से अधिक शब्द मिलकर एक हो जाते हैं तब समास बनता है। शब्दों के मिलने की प्रक्रिया से एक नया शब्द बनता है, साथ ही उनके बीच के संयोजक शब्द या विभक्ति का लोप हो जाता है जैसे- पीत है जिसका अम्बर’ इसका समास बनता है पीताम्बर। इस समास के बनने पर ‘है जिसका’ का लोप हो गया और जो नया शब्द ‘पीताम्बर’ बना वह सामासिक शब्द हुआ।
आज से लगभग छः दशक पूर्व हिन्दी के प्रसिद्ध व्याकरण शास्त्री पं. कामता प्रसाद गुरू ने हिन्दी का पहला व्यवस्थित व्याकरण लिखा था। उसमें उन्होंने समाज को इस प्रकार परिभाषित क्रिया है- ‘दो या अधिक शब्दों का परस्पर सम्बन्ध बताने वाले शब्दों का लोप होने पर उन दो या अधिक शब्दों से जो एक स्वतंत्र शब्द बनता है उस शब्द को सामाजिक शब्द कहते हैं और उन दो या अधिक शब्दों का जो संयोग होता है वह समास कहलाता है।’
यहाँ समास और संधि का अंतर समझ लेना आवश्यक है –
- संधि में दो वर्णों के मेल से शब्द का नया रूप बनता है और समास में दो पदों का योग होता है।
- संधि में दो वर्णों के मेल से विकार भी उत्पन्न हो सकता है, जबकि समास में केवल दो पदों के बीच का संयेजक शब्द ही लुप्त हो जाता है।
- संधि को तोड़ने से उसका ‘विच्छेद’ होता है और समास का विग्रह होता है, जैसे पीताम्बर में दो पद हैं- ‘पीत’ और ‘अम्बर’ । इसका संधि विच्छेद होने पर पीत+अम्बर लिखा जायगा और समास विग्रह होने पर पीत है अम्बर जिसका ।’
संधि और समास का अंतर बतलाते हुये ‘विकार’ शब्द का प्रयोग भी हुआ है। इसे समझ लेना भी आवश्यक है। परिवर्तन करने से शब्दों में अंतर आता है और इस अंतर के आधार पर शब्दों के दो भेद हो जाते हैं ।
- विकारी शब्द,
- अविकारी शब्द |
‘विकारी’ शब्द वे हैं, जिनमें लिंग, वचन, कारक आदि के अनुसार अंतर अथवा परिवर्तन होता है, जैसे- ‘लड़का’ शब्द परिवर्तित होकर ‘लड़के’ और ‘लड़कों होगा तथा विकारी कहलायेगा और अविकारी शब्द वह है, जिसमें किसी भी दशा में परिवर्तन नहीं होता, जैसे ‘आजकल’, ‘जब’, ‘तथा’, ‘एवं’ इत्यादि ।
समास रचना के नियम –
समास की रचना करते समय निम्नलिखित नियमों को ध्यान में रखना चाहिये –
- शब्द जोड़ने में संधि नियमों का पालन किया जाता है। जैसे विद्य + आलय = विद्यालय ।
- शब्दों के बीच के विभक्ति चिन्ह तथा सम्बन्ध सूचक प्रत्ययों का लोप हो जाता है। जैसे- दाल और रोटी = दाल-रोटी।
- सामान्य रूप से समस्त पद मिलाकर लिखे जाते हैं। परन्तु बहुत लम्बे और बड़े शब्द होने पर पदों के बीच में योजक चिन्ह (-) का प्रयोग किया जाता है। वैश्य-कुल-कुमार, कवि-कुल- शिरोमणि ।
समास के भेद –
समास के भेदों का अध्ययन करने से पहले हमें इन भेदों के विभाजन के मूलभूत आधार को भी समझ लेना चाहिये –
- कुछ शब्दों का पहला खण्ड प्रधान होता है ।
- कुछ शब्दों का दूसरा पद प्रधान होता है।
- कुछ शब्दों में दोनों पद प्रधान होते हैं।
- कुछ शब्दों में कोई भी पद प्रधान नहीं होता ।
- अव्ययी भाव समास,
- तत्पुरुष समास,
- कर्मधारय समास,
- द्विगु समास.
- बहुव्रीहि समास,
- द्वन्द्व समास ।
1. अव्ययी भाव –
इसमें पहले पद की प्रधानता होती है और पूरा पद अव्यय बन जाता है। अव्यय ऐसे शब्द को कहते हैं, जिसमें किसी भी कारण से कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। ऐसे शब्द हर स्थिति में अपने मूल रूप में बने रहते हैं इनका व्यय नहीं होता अतः ये अव्यय हैं, जैसे- तब, जब कभी, इधर उधर, परंतु इत्यादि ।
इसी आधार पर अव्ययी भाव समास परिभाषित हुये हैं। ऐसे समस्त सामासिक पदों का विग्रह करने में प्रायः कठिनाई होती है। अतः जिस समास का प्रायः पहला पद प्रधान हो तथा पूर्ण पद क्रिया – विशेषण या अव्यय हो उसे अव्ययी भाव समास कहा जाता है।
अव्ययी भाव समास के उदाहरण – यथा शक्ति, प्रतिदिन, आजीवन, अनुकूल, अनजाने, तत्काल, दिनभर, आमरण, निधड़क, भरपेट, बेकाम, बेखटके, भरसक अभूतपूर्व ।
उपर्युक्त उदाहरणों में – ‘यथा’, ‘प्रति’, ‘आ’, ‘अनु’, ‘अन’, ‘तत’, ‘दिन’, ‘नि’, ‘भर’, ‘बे’, ‘भर’, ‘अभूत’ आदि अव्यय हैं।
2. तत्पुरुष समास –
जिस समास का दूसरा पद प्रधान हो उसे तत्पुरुष समास कहते हैं। इस समास में कर्त्ता और सम्बोधन कारक को छोड़कर कोई भी कारक आ सकता है। इनमें विभक्तियों का लोप हो जाता है। जैसा की इस समास के नाम से विदित होता है। इस समास में साधारणतया प्रथम पद विशेषण और द्वितीय पद विशेष्य होता है अतः द्वितीय पद की प्रधानता रहती है। जिस कारक की विभक्ति का लोप होता है, उसी कारक के अनुसार इस समास का नाम होता है। जैसा कि इस समास के नाम से विदित होता है- जैसा पुरुष वैसा समास । यह छः प्रकार का होता है-
(i) कर्म तत्पुरष – जिसमें कर्म कारक की विभक्ति का लोप हो जाता है, जैसे ‘स्वर्ग को गया हुआ’, इसमें विभक्ति का लोप हो जाने पर ‘स्वर्गगत’, माखन को चुराने वाला- ‘माखनचोर’।
(ii) करण तत्पुरुष – वह तत्पुरुष जिसमें करण कारण की विभक्ति का लोप हो। जैसे- ‘नीति से युक्त’ नीतियुक्त, ‘शोक से आकुल’- ‘शोकाकुल’।
(iii) सम्प्रदान तत्पुरुष – इसमें सम्प्रदान कारक की विभक्ति ‘के लिये’ का लोप होता है। जैसे- हाथों के लिये कड़ी- ‘हथकड़ी’, राह के लिये खर्च राहखर्च, देश के लिये भक्ति- ‘देश भक्ति’ आदि ।
(iv) अपादान तत्पुरुष – इसमें अपादान कारक की विभक्ति ‘से’ का लोप होता है। जैसे- ऋण से मुक्त – ऋण मुक्त, धर्म से भ्रष्ट- ‘धर्म भ्रष्ट’, जन्म से अन्धा- ‘जन्मांध’, रण से विमुख- ‘रणविमुख’ आदि ।
(v) सम्बन्ध तत्पुरुष – पदों से सम्बन्ध कारक (का) लुप्त होने पर सम्बन्ध तत्पुरुष समास बनता है। जैसे- राष्ट्र का पति राष्ट्रपति’ सेना का पति ‘सेनापति’, राम के अनुज- ‘रामानुज’, राजा का आदमी ‘राजपुरुष’ आदि ।
(vi) अधिकतरण तत्पुरुष – जहाँ समास पदों में अधिकरण का लोप हो वहाँ अधिकरण तत्पुरुष होता है। इसमें अधिकरण कारक के चिन्ह ‘में’ तथा ‘पर’ का लोप होता है। जैसे- गृह में प्रवेश- ‘गृह प्रवेश’, विद्या में प्रवीण – ‘विद्या प्रवीण’ आप पर बीती- ‘आप बीती’, घोड़े पर सवार – ‘घुड़ सवार, ध्यान में मग्न ‘ध्यान मग्न’, गृह में स्थित ‘गृहस्थ’, सिर पर पडी- ‘सिरपड़ी’ अमेरिका में वास करने वाले ‘अमेरिकावासी’ आदि ।
3.कर्मधारय समास –
जिसका पहला पद संख्यावाची विशेषण को छोड़कर कोई अन्य प्रकार का विशेषण हो तो कर्मधारय समास कहलाता है। इसकी एक पहचान और है। इसमें विशेष्य- विशेषण, उपमेय – उपमान का मेल प्रदर्शित होता है। जैसे- भाव-रूपी सागर भवसागर ।’ बादल जैसा काला- ‘घनश्याम’, चन्द्र के समान मुख- ‘चन्द्रमुख’ प्राण के समान प्रिय ‘प्राण प्रिय’ आदि इसमें पहला शब्द दूसरे शब्द की विशेषता बतलाता है।
4. द्विगु समास –
यह कर्मधारय का ही एक उपभेद है। इसका पहला पद संख्या बोधक होता है। यही इसकी सबसे बड़ी पहचान है। इसके दो उपभेद हैं-
- समाहार द्विगु – समाधार का अर्थ होता है- एकत्र करना, समेटना, जैसे- तीनों लोकों का समाहार- ‘त्रिलोक’, नव रसों का समूह ‘नव रस।
- उत्तर-पद प्रधान द्विगु – उत्तर – पद प्रधान द्विगु में उत्तर पद का अर्थ महत्वपूर्ण होता है। जैसे- पंचशील, यह शील महत्वपूर्ण है। ‘नव रात्र’- रात की विशेषता है। यहाँ पूर्व पद संख्यावाची है। ‘चौमासा’- चार मास का, आदि ।
5. बहुव्रीहि समास –
समास में दो पद होते दोनों पदों के मेल से सामासिक शब्द बनता है और उसी पर उसका अर्थ होता है। किन्तु बहुब्रीहि समास में किसी अन्य अर्थ की प्रधानता हो जाती है। जैसे- पीला है अम्बर जिसका पीताम्बर’, अन्य अर्थ हुआ ‘विष्णु’ पीत अम्बर धारण करने वाले । अन्य अर्थ को बोध होने से बहुव्रीहि होगा और कर्मधारय तत्पुरुष होगा पीला कपड़ा । . इस प्रकार एक ही शब्द का विग्रह करने पर दो अलग-अलग समासों का बोध होता है। तत्पुरुष में विग्रह करने पर पीला कपड़ा, बहुव्रीहि में विग्रह करने पर ‘विष्णु’ इसी तरह ‘दशानन’- दस हैं मुख जिसके अर्थात् रावण, ‘लम्बोदर’ लम्बा है उदर जिसका अर्थात् श्री गणेश, ‘नीलकण्ठ’- नीला है कंठ जिसका अर्थात् महादेव, आदि।
6. द्वन्द्व समास –
जिस समास में दोनों पद प्रधान हों और दोनों की पद संज्ञा हो और जिसमें ‘और’, ‘अथवा’, ‘तथा’, ‘एवं’, ‘या’, ‘व’ आदि संयोजकों का लोप हो उसे द्वन्द्व समास कहते हैं। इसके तीन उपभेद होते हैं –
- इतरेतर द्वन्द्व – जिसमें दोनों पद जुड़े हों और पृथक होने पर अपना अलग अस्तित्व रखते हों वहां इतरेतर द्वन्द्व समास होता है। इस समास से बने पद हमेशा बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं। जैसे- राम और कृष्ण – ‘रामकृष्ण’, भाई और बहन-भाई बहन ।’
- समाहार द्वन्द्व – जब दोनों पद समूह में हों और अलग-अलग अस्तित्व न रखते हों- जैसे- दाल-रोटी, (केवल दाल रोटी का बोध नहीं कराते बल्कि पूरे भोजन का अर्थ समेटे हुये हैं।) अन्न-जल – (केवल दाना और पानी नहीं बल्कि पूरे परिवेश की समग्रता का बोध कराते हैं।)
- वैकल्पिक द्वन्द – जिस द्वन्द्व समाज में दो पदों के बीच ‘या’, ‘अथवा’ आदि विकल्प सूचक के अव्यय छिपे हों, वहाँ वैकल्पिक द्वन्द्व होता है।” जैसे- “पाप-पुण्य'”, यहाँ पाप-पुण्य ” का अर्थ पाप और पुण्य भी प्रसंगानुसार हो सकता है। इसी प्रकार ओज-कल, भला- बुरा, ऊँच-नीच आदि । उपर्युक्त उदाहरणों में ‘और’, ‘या’ का लोप हुआ है।