बाजार के प्रकार
अर्थशास्त्रियों द्वारा बाजार के प्रकार को निम्नांकित आधारों पर बटा गया है-
(अ) क्षेत्र के आधार पर क्षेत्र के आधार पर बाजार चार प्रकार के होते हैं-
स्थानीय बाजार-
जब किसी वस्तु के क्रेता एवं विक्रेता एक छोटे क्षेत्र अथवा स्थान विशेष तक ही सीमित होते हैं, तो उस वस्तु का बाजार स्थानीय बाजार कहलाता है, जैसे- शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुएँ यथा- दूध, सब्जी, मछली, फल, दही इत्यादि के बाजार स्थानीय होते हैं। इसी प्रकार जो अधिक स्थान घेरती है तथा भारी होती हैं, जैसे- रेत. ईट. पत्थर, रुई इत्यादि।
प्रादेशिक बाजार-
जब किसी वस्तु के क्रेता एवं विक्रेता एक बड़े क्षेत्र अथवा प्रान्त तक फैले होते हैं, तो उस वस्तु का बाजार प्रादेशिक बाजार कहलाता है। उदाहरणार्थ- पगड़ी एवं साफे का बाजार राजस्थान तथा पंजाब तक ही सीमित है। लाख की चूड़ियों का बाजार राजस्थान में, क्योंकि वहाँ पर उसकी माँग अधिक है।
राष्ट्रीय बाजार-
जब किसी वस्तु के क्रेता एवं विक्रेता पूरे देश में फैले होते हैं, तो उस वस्तु का बाजार राष्ट्रीय बाजार कहलाता है। उदाहरणार्थ, कपड़ा, गेहूँ, स्कूटर, दालें, कार, फर्नीचर इत्यादि का बाजार राष्ट्रीय है, क्योंकि इन वस्तुओं की माँग पूरे देश में है ।
अन्तर्राष्ट्रीय बाजार-
जब किसी वस्तु की माँग पूरे विश्व में होती है अर्थात् उस वस्तु के क्रेता एवं विक्रेता पूरे विश्व के विभिन्न देशों में फैले होते हैं, तो उस वस्तु का बाजार अन्तर्राष्ट्रीय बाजार कहलाता है। उदाहरणार्थ- सोना, चाँदी, हीरा इत्यादि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार की वस्तुएँ हैं।
(ब) समय के आधार पर समय के आधार पर बाजार निम्न चार प्रकार के होते हैं-
अति अल्पकालीन अथवा दैनिक बाजार-
जब वस्तु के विक्रेता के पास पूर्ति में वृद्धि करने का समय बिल्कुल भी उपलब्ध नहीं होता, तब इस प्रकार के बाजार को अति अल्पकालीन बाजार कहते हैं। इस प्रकार के बाजार में कीमत पर केवल वस्तु की माँग का ही प्रभाव पड़ता है तथा पूर्ति की मात्रा स्थिर रहती है। उदाहरणार्थ- शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं को अल्पकालीन बाजार के अन्तर्गत रखा जाता है, जैसे- हरी सब्जी, दूध, दही, अण्डे, मछली आदि। अति अल्पकालीन बाजार में बिकने वाली वस्तुओं की कीमत को ‘बाजार कीमत’ कहा जाता है।
अल्पकालीन बाजार –
अल्पकालीन बाजार एक ऐसा बाजार है, जिसमें पूर्ति कुछ सीमा तक बढ़ायी जा सकती है, लेकिन यह वृद्धि माँग के अनुपात में नहीं होती। इसमें पूर्ति को बढ़ाने के लिए केवल विद्यमान उपकरणों का ही उपयोग किया जाता क्योंकि विक्रेता के पास इतना समय नहीं होता कि वह साधनों में वृद्धि करके उत्पादन की मात्रा को बढ़ा सके। फलस्वरूप कीमत निर्धारण में यद्यपि पूर्ति का प्रभाव पड़ता है, तथापि वह माँग के प्रभाव की तुलना में सीमित होता है। इस बाजार की कीमत को प्रायः ‘अल्पकालीन सामान्य कीमत’ कहा जाता है।
दीर्घकालीन बाजार-
दीर्घकालीन बाजार वह बाजार होता है, जिसमें विक्रेता के पास पूर्ति में वृद्धि करने के लिए पर्याप्त लम्बा समय होता है। फलस्वरूप कीमत निर्धारण में माँग एवं पूर्ति दोनों का समान प्रभाव पड़ता है, फिर भी माँग की तुलना में पूर्ति का विशेष महत्व होता है तथा कीमत की प्रवृत्ति उत्पादन लागत के बराबर होने को रहती है। दीर्घकालीन बाजार में जो कीमत निर्धारण की जाती है, उसको ‘दीर्घकालीन सामान्य कीमत कहते हैं।
अति दीर्घकालीन बाजार-
अति दीर्घकालीन बाजार में विक्रेता के पास इतना अधिक समय होता है कि वह उपभोक्ता के प्रभाव, रुचि और फैशन के अनुसार वस्तु का उत्पादन कर सकता है। इस अवधि में नवीन फर्म उत्पादन में लग जाती हैं तथा उत्पादन को किसी भी सीमा तक बढ़ाया जा सकता है। अति दीर्घकालीन बाजार में कीमत निर्धारण पर पूर्ति का हो अधिक प्रभाव पड़ता है। इस बाजार की कीमत को अति दीर्घकालीन सामान्य कीमत’ कहते हैं।
(स) प्रतियोगिता के आधार पर प्रतियोगिता के आधार पर बाजार को निम्न तीन भागों में बाँटा जा सकता है-
पूर्ण बाजार-
जब किसी वस्तु के क्रेताओं एवं विक्रेताओं के बीच पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है, तो उसे ‘पूर्ण बाजार’ कहते हैं। पूर्ण बाजार के लिए निम्न दशाओं अथवा विशेषताओं का होना आवश्यक है-
- क्रेताओं एवं विक्रेताओं की संख्या बहुत अधिक होती है।
- सभी क्रेताओं एवं विक्रेताओं को बाजार की पूर्ण जानकारी होती है।
- बाजार में वस्तु सभी प्रकार से एकरूप होती है अर्थात वस्तु-विभेद नहीं पाया जाता है।
- क्रेता एवं विक्रेता अत्यन्त पास-पास होते हैं, जिनके कारण परिवहन लागत का अभाव पाया जाता है।
- क्रेता एवं विक्रेता में से कोई भी वस्तु की कीमत को प्रभावित नहीं कर सकता है।
अपूर्ण बाजार –
जब किसी बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता का अभाव पाया जाता है तो वह – अपूर्ण बाजार कहलाता है। व्यावहारिक जीवन में अपूर्ण बाजार ही देखने को मिलता है। अपूर्ण बाजार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित है-
- सभी उत्पादकों की वस्तु में रंग, रूप, आकार, गुणवत्ता के कारण विभिन्नता होती है। अर्थात वस्तु विभेद पाया जाता है।
- क्रेताओं एवं विक्रेताओं की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है।
- क्रेताओं एवं को बाजार का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है।
- किसी भी क्रेता अथवा विक्रेता का कीमत को प्रभावित करने में सक्षम होना।
- एक ही वस्तु की एक समय में एक से अधिक कीमत प्रचलित होती हैं।
एकाधिकार बाजार-
जब किसी बाजार में वस्तु का एक ही उत्पादक अथवा विक्रेता हो तथा अन्य कोई प्रतिद्वन्द्वी न हो और उसके द्वारा उत्पादित वस्तु की कोई स्थानापन्न वस्तु भी न हो, तब ऐसे बाजार को एकाधिकार बाजार कहते हैं। चूँकि एकाधिकार में प्रतियोगिता का अभाव होता है, अतः एकाधिकारी अपनी वस्तु की कीमत अलग-अलग व्यक्तियों से अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग वसूल कर सकता है। इस प्रकार एकाधिकारी का अपनी वस्तु की कीमत तथा उसकी पर पूर्ण नियन्त्रण होता है।
(द) कार्य के आधार पर कार्य के आधार पर बाजार को निम्न चार भागों में बाँटा जा सकता है-
मिश्रित बाजार-
जब किसी बाजार में विभिन्न वस्तुओं का क्रय-विक्रय किया जाता है, तो उसे मिश्रित बाजार कहते हैं। उदाहरणार्थ-दिल्ली का चाँदनी चौक, मेरठ का सदर बाजार, रायपुर का गोल बाजार इत्यादि । सुपर बाजार भी मिश्रित बाजार के उदाहरण हैं।
विशिष्ट बाजार-
जब किसी बाजार में एक विशेष वस्तु का ही क्रय- विक्रय किया जाता है, तो इसे विशिष्ट बाजार कहते हैं। ऐसे बाजार प्रायः बड़े शहरों में ही पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ – अनाज मण्डी, सब्जी मण्डी, जौहरी बाजार इत्यादि विशिष्ट बाजार के उदाहरण हैं।
नमूनों द्वारा बाजार –
जब कोई वस्तु नमूनों के आधार पर बेची एवं खरीदी जाती है, तो उसे नमूनों के द्वारा बिक्री का बाजार कहते हैं। प्रायः थोक बाजार में वस्तुओं का क्रय-विक्रय श्रेणियों के आधार पर ही जाता है।
श्रेणियों के आधार पर बाजार-
जब किसी वस्तु को विभिन्न श्रेणियों में बाँटकर क्रय-विक्रय किया जाता है, तो उसे श्रेणियों के आधार पर बिक्री का बाजार कहते हैं। प्रायः थोक बाजार में वस्तुओं का क्रय-विक्रय श्रेणियों के आधार पर ही किया जाता है।
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