साधारणतः जैन धर्म का संस्थापक महावीर स्वामी को माना जाता है। ऋग्वेद में जैन मुनियों-ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि के नाम मिलते हैं। ऋषभदेव को जैन धर्म का आदि प्रवर्तक माना गया है। ये जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर थे । महावीर स्वामी 24वें तीर्थंकर थे। इनसे पूर्व 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ हुए। इनका काल महावीर स्वामी से 250 वर्ष पूर्व माना जाता है। पार्श्वनाथ के पिता काशी नरेश अश्वसेन एवं माता वामा थी । कुश स्थल की राजकुमारी प्रभावती इनकी पत्नी थी 30 वर्ष की आयु में इन्होंने राजमोह त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया।
जैन धर्म का इतिहास (Jainism in Hindi)
महावीर स्वामी (जैन धर्म) –
इनका जन्म 540 ई. पू. वैशाली (बिहार) के पास कुण्ड ग्राम (वर्तमान मुजफ्फरपुर जिला) में हुआ था। इनका वास्तविक नाम वर्धमान था । नातृक क्षत्रिय कुल के प्रधान सिद्धार्थ इनके पिता थे। इनकी माता का नाम त्रिशला था । इनकी पत्नी का नाम यशोदा था। इनकी पुत्री का नाम अणोज्या ( प्रियदर्शना ) था । पार्श्वनाथ की तरह महावीर स्वामी ने भी 30 वर्ष की आयु में गृह त्याग दिया था। समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के कारण वे जैन कहलाए। संभवत: इसलिए उनके अनुयायी जैन कहलाए। 72 वर्ष की आयु में पावा में इन्हें 468 ई. पू. निर्वाण प्राप्त हुआ । अपरिमित पराक्रम दिखाने के कारण उन्हें महावीर स्वामी कहा गया।
जैन धर्म के सिद्धांत ( महावीर स्वामी की शिक्षाएँ)
महाव्रत – महावीर स्वामी ने 5 मुख्य महाव्रतों पर जोर दिया –
- सत्य या अमृषा – हमेशा बोलो कभी झूठ नहीं बोलना ।
- अहिंसा- कभी हिंसा मत करो, किसी का दिल मत दुखाओ।
- अस्तेय – कभी चोरी न करना। किसी का कुछ सामान देखकर ललचाना भी चोरी है।
- अपरिग्रह – संपत्ति का संग्रह न करना।
- ब्रह्मचर्य – इन्द्रियों को वश में रखो।
जैन धर्म के सिद्धांत – ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी ने जो विचार प्रकट किए वे ही जैन धर्म के सिद्धान्त बन गए। जो निम्नलिखित हैं-
- ईश्वर में अविश्वास- महावीर स्वामी ईश्वर को नहीं मानते थे, उनका मानना कि न तो ईश्वर इस संसार का रचयिता है और न ही नियंत्रक ।
- आत्मा का अस्तित्व- महावीर स्वामी आत्मा का अस्तित्व मानते थे। प्रत्येक जीव, पेड़, पौधे सभी में आत्मा है।
- कर्मफल एवं पुनर्जन्म – महावीर स्वामी ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को माना है। कर्मफल ही जन्म-मृत्यु का कारण है। आवागमन का सिद्धान्त मनुष्य के कर्म पर आधारित है।
- मोक्ष अथवा निर्वाण- सांसारिक तृष्णा बन्धन से मुक्ति को निर्वाह कहा गया है। कर्मफल से मुक्ति पाकर ही व्यक्ति मोक्ष अथवा निर्वाण की ओर अग्रसर हो सकता है।
जैन धर्म के त्रिरत्न- महावीर स्वामी ने कर्मफल से छुटकारा पाने के लिए त्रिरत्नों को अपनाने पर बल दिया।
- सम्यक ज्ञान – सच्चा एवं पूर्ण ज्ञान का होना ही सम्यक ज्ञान है।
- सम्यक दर्शन – सत्य में विश्वास एवं यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा ही सम्यक दर्शन है।
- सम्यक आचरण- सच्चा आचरण एवं सांसारिक विषयों से उत्पन्न सुख-दुख के आचरण है।
संल्लेखन- आत्मा को घेरने वाले भौतिक तत्वों के दमन हेतु काया क्लेश आवश्यक माना गया है। जैन धर्म में उपवास (काया- क्लेश) द्वारा शरीर के अन्त पर अर्थात् सल्लेखन पर विशेष महत्व दिया गया है। मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने सल्लेखन द्वारा ही मृत्यु का वरण किया था ।
जैन संघ – जैन संघ में भिक्षु भिक्षुणी, श्रावक एवं श्राविका आते थे। भिक्षु भिक्षुणी संन्यासी जीवन व्यतीत करते थे। श्रावक-श्राविका गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे।
जैन धर्मं के प्रकार (Types of Jainism)
दिगम्बर एवं श्वेताम्बर संप्रदाय –
468 ई. में महावीर स्वामी की मृत्यु के लगभग 200 वर्ष पश्चात् मगध में भीषण अकाल पड़ा। भद्रबाहु के नेतृत्व में कुछ जैन दक्षिण भारत चले गये। स्थूलभद्र के नेतृत्व में कुछ लोग मगध में ही रह गए।
स्थूलभद्र के अनुयायियों ने श्वेत वस्त्र धारण करना आरंभ कर दिया कुछ उदार एवं सुधारवादी हो गए। ये पार्श्वनाथ के अनुयायी थे, यही श्वेताम्बर कहलाए।
भद्रबाहु के अनुयायी महावीर स्वामी के कट्टर अनुयायी बने वे नग्न रहते थे। जैन धर्म के सिद्धान्तों का सख्ती से पालन करते थे, ये लोग दिगम्बर कहलाए ।
जैन धर्म का प्रसार (Spread of Jainism)
महावीर स्वामी द्वारा निर्मित गणधर समूह के तहत जैन संघ ने जैन धर्म के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फलतः समस्त भारत में यह धर्म तेजी से फैला। महावीर स्वामी के निर्वाण के समय इस धर्म के अनुयायियों की संख्या लगभग 14000 थी। उनके समय ही यह धर्म मगध, कौशल, विदेह एवं अंग राज्य में फैल गया। दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रसार का श्रेय भद्रबाहु को जाता है। जैन धर्म के प्रसार के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
- राजकीय संरक्षण— हर्यक वंश के बिम्बिसार, अजातशत्रु, उदयन, मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार एवं कलिंग राजा खारवेल जैन धर्म के अनुयायी थे। इस प्रकार राजकीय संरक्षण का होना इस धर्म के प्रसार में सहायक हुआ।
- बोलचाल की भाषा का प्रयोग – इस धर्म के सिद्धान्त साधारण बोलचाल की भाषा (प्राकृत) में लिखे गए। इससे जनता इनकी ओर आकर्षित हुई जैन मुनि लोगों की साधारण भाषा में ही उपदेश देते थे ।
- सामाजिक समानता – महावीर स्वामी ने जाति-पाति का घोर विरोध किया। धर्म के द्वार सभी वर्गों के लिए व स्त्रियों के लिए भी खोल दिया। फलतः जन साधारण इस धर्म की ओर आकर्षित हुआ।
जैन धर्म की देन –
जैन धर्म ने भारत के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों को अनेक रूपों में प्रभावित किया, आज भी यह धर्म देश का एक महत्वपूर्ण धर्म बना हुआ है। जैन धर्म के प्रभावों को निम्नलिखित बिन्दुओं में समझा जा सकता है-
- सामाजिक देन – सामाजिक क्षेत्र में जैन धर्म की सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन जाति-पाति के बन्धनों एवं ऊँच- नीच की भावनाओं को शिथिल बनाना था। परिणामस्वरूप समाज में भ्रातृत्व का विकास हुआ तथा निम्न वर्ग के लोगों को सम्मानित जीवन जीने का अवसर मिला। सामाजिक क्षेत्र में जैन धर्म की एक अन्य महत्वपूर्ण देन अहिंसा का सिद्धांत है।
- धार्मिक देन – जैन धर्म की धार्मिक देन भी महान थी। इसके प्रभाव के परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म की अनेक बुराइयाँ दूर हो गई। जात-पात के बन्धन शिथिल होने लगे तथा लोगों को खर्चीले यज्ञों तथा कर्मकाण्ड से छुटकारा मिल गया।
- सांस्कृतिक देन – जैन धर्म ने देश के सांस्कृतिक विकास में सराहनीय योगदान दिया। जैन मतावलम्बियों धर्म प्रचार के उद्देश्य से लोक भाषाओं में साहित्य की रचना की। जैन विद्वानों ने अपभ्रंश भाषा में पहली बार कई महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे तथा इसका पहला व्याकरण तैयार किया। दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचार और प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत की भाषाओं में जैन सिद्धांत और ग्रंथ लिखे गए। विभिन्न ललित कलाओं के क्षेत्र में भी जैन धर्म का योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा है। आबू में दिलवाड़ा के जैन जोधपुर में राणापुर के जैन मंदिरों तथा मध्यप्रदेश में बुन्देलखण्ड में खजुराहों में घटई और आदिनाथ के जैन मंदिरों में मंदिर निर्माण तथा मूर्तिकला के अद्भुत नमूने उपलब्ध होते हैं। दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला, मुद्राबिद्री तथा गुरुवायंकेरी में कलापूर्ण जैन मंदिर है श्रवणबेलगोला के समीप गोमतेश्वर की विशाल प्रतिमा मूर्तिकला का प्रशंसनीय उदाहरण हैं।
- राजनैतिक देन – जैन धर्म के राजनैतिक क्षेत्र भी महत्वपूर्ण प्रभाव हुए। इस धर्म के अहिंसा के सिद्धांत ने जन सामान्य को शांतिप्रिय बना दिया उनके मन में युद्ध एवं रक्तपात के लिए घृणा की भावनाएँ उत्पन्न कर दी । अहिंसा के अनुसरण ने जहाँ एक ओर शान्ति और समृद्धि के वातावरण को जन्म दिया वही दूसरी ओर इसके राजनीति पर कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हुए। युद्धों में भाग में लेने के कारण सेनाएँ दुर्बल हो गई, परिणामस्वरूप भारतीय नरेश विदेशी आक्रमणकारियों का सफलतापूर्वक सामना नहीं कर सके।
Read More – जैन धर्म का परिचय