छठीं शताब्दी ई. पू. के काल में जैन एवं बौद्ध धर्मों का उदय हुआ। जैन और बौद्ध धर्म के उदय के कारण निम्नलिखित हैं-
जैन और बौद्ध धर्म के उदय के कारण
कर्मकाण्ड एवं वैदिक धर्म की जटिलता –
ऋग्वेद कालीन धर्म अपनी आरंभिक अवस्था में अत्यधिक सरल एवं विशुद्ध था। आर्य स्तुतिपाठ करके तथा यज्ञ एवं चढ़ावा अर्पित कर देवी-देवताओं की उपासना करते थे । यज्ञों के समय सूक्तों का उच्चारण करके पशुधन, पुत्र, स्वास्थ्य, दीर्घ आयु आदि के लिए प्रार्थना की जाती थी । यज्ञादि गृहस्वामी द्वारा संपन्न कर लिए जाते थे।
धीरे-धीरे वैदिक धर्म में अनेक जटिलताएँ आ गई। धर्म पर एक वर्ग विशेष का प्रभुत्व स्थापित हो गया तथा धर्म का स्थान जटिल कर्मकाण्डों ने ले लिया। खर्चीले यज्ञों, बलि व्यर्थ के रीति रिवाजों एवं आडम्बरों को अत्यधिक महत्व , दिया जाने लगा। कुछ यज्ञ तो कई दिनों, महीने और वर्षों तक चलते थे। इस प्रकार का जटिल, बोझिल एवं दुरूह धर्म जन सामान्य की पहुँच से दूर होने लगा।
जाति प्रथा की जटिलताएँ –
ऋग्वैदिक युग में कर्म के आधार पर वर्ण बनाए गए थे, जिसका उद्देश्य था सामाजिक व्यवस्था का सुचारू रूप से संचालन करना लेकिन उत्तरवैदिक युग तक यह व्यवस्था जन्म पर आधारित व्यवस्था में बदल गई। छठी शताब्दी ई. पू. तक यह व्यवस्था बहुत जटिल एवं कठोर हो गई। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य को द्विज कहा जाता था, इन्हें जनेउ धारण करने एवं वेद पढ़ने का अधिकार था । किन्तु चौथे वर्ण शूद्र को इससे वंचित रखा गया। इस प्रकार समाज के एक बड़े हिस्से में वैदिक परंपरा के विरुद्ध तीव्र असन्तोष था।
वेदों की कठिन भाषा –
वैदिक ग्रन्थों की रचना संस्कृत भाषा में की गई थी। छठीं शताब्दी ई. पू. तक यह भाषा जन सामान्य की भाषा न होकर केवल विद्वानों की भाषा बन चुकी थी। पाली और प्राकृत सरल होने के कारण जन सामान्य की भाषाएँ बन चुकी थी किन्तु अभी भी सभी धार्मिक कार्यों में संस्कृत का ही प्रयोग होता था। अतः धर्म ग्रंथ जन सामान्य की समझ से परे थे । ब्राह्मणों ने इस स्थिति का लाभ उठाकर धर्म शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करने लगे थे। जन सामान्य को एक ऐसे धर्म की जरूरत थी जिसके सिद्धांत जन सामान्य की भाषा में हो जिन्हें सभी लोग आसानी से समझ सके।
नये विचारों का उदय –
उपनिषदों में वर्णित विचारधाराओं से पता चलता है कि लोगों में जीवन के अर्थ, मृत्यु के बाद के जीवन की संभावना और पुनर्जन्म के विषय में जानने की उत्सुकता बढ़ रही थी। लोग यज्ञों के महत्व के बारे में सोचने लगे थे। इस स्थिति में कुछ दार्शनिक इस प्रश्न कि ‘सत्य एक है या अनेक’ का उत्तर ढूँढने के लिए प्रयत्नशील थे । अनेक विचारक ( श्रमण ) स्थान-स्थान पर घूमकर अपनी विचारधाओं के विषय में अन्य लोगों से तर्क-वितर्क करने लगे। ऐसी चर्चाऐं अक्सर उपवनों में बनी झोपड़ियों में होती थी जहाँ घुमक्कड़ मनीषी आकर ठहरते थे। ये दार्शनिक एवं विचारक समाज के सभी वर्गों से संबंधित होते थे। इनका उद्देश्य जीवन के सत्य को जानना तथा मानसिक शांति एवं आनंद को प्राप्त करना था निः संदेश इन नवीन विचारों एवं विचारकों ने जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म के उदय की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी
नयी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का विस्तार –
लगभग 600 ई. पू. के आस-पास जब लोहे का प्रयोग होने लगा तो लोहे के औजारों से जंगलों की कटाई की गई वहीं बस्तियाँ अस्तित्व में आई तथा कृषि भूमि का विस्तार किया गया। खेतों की जुताई तथा अन्य कृषि कार्यों के लिए बैलों की माँग में वृद्धि होने लगी। किन्तु वैदिक कर्मकाण्ड के कारण यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी जिस कारण पशुधन की हानि हो रही थी। मगध के दक्षिणी एवं पूर्वी छोरों पर रहने वाले कवाइली लोगों के मांसाहारी होने के कारण भी पशुधन की हानि हुई । नवीन कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के विकास एवं विस्तार के लिए पशु वध को रोकना नितांत आवश्यक था। अतः जन सामान्य अब वैदिक कर्मकाण्डों के विरुद्ध होने लगे ।
क्षत्रिय वर्ग की प्रतिक्रिया –
अनेक इतिहासकार इस बात से सहमत है कि समाज में ब्राह्मण वर्ग के बढ़ते हुए प्रभाव के विरुद्ध क्षत्रिय वर्ग की प्रतिक्रिया जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म के उदय का एक महत्वपूर्ण कारण बनी। ब्राह्मण समाज में सर्वोच्च होने के कारण अनेक विशेषाधिकारों जैसे- दान लेना, करों से छूट, दण्ड में माफी आदि का उपयोग करते थे और स्वयं को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि मानते थे। क्षत्रिय शासक होने के कारण ब्राह्मणों के धर्म संबंधी प्रभुत्व के विरुद्ध थे । इस प्रकार क्षत्रियों द्वारा ब्राह्मणों की धार्मिक सर्वोच्चता का विरोध किया जाना नवीन धर्मों के उदय का महत्वपूर्ण कारण था।
वैश्य वर्ग का बढ़ता महत्व –
लोहे के उपकरणों के प्रयोग के परिणामस्वरूप कृषि भूमि का विस्तार हुआ । उत्पादन में वृद्धि होने के कारण व्यापार वाणिज्य को प्रोत्साहन मिला। पूर्वोत्तर भारत में कौशाम्बी कुशीनगर, वाराणसी, वैशाली और राजगीर जैसे महत्वपूर्ण नगर अस्तित्व में आ चुके थे। सिक्कों के प्रचलन से व्यापार वाणिज्य को प्रोत्साहन मिला और समाज में वैश्यों का महत्व बढ़ने लगा । ब्राह्मण प्रधान समाज में वैश्य तीसरे स्थान पर थे। अतः वे किसी ऐसे धर्म की आकांक्षा करने लगे जिसके तहत उनकी स्थिति ऊँची हो सके।
अनुकूल राजनैतिक परिस्थितियाँ –
600 ई. पू. के आस-पास की अनुकूल राजनैतिक परिस्थितियों ने भी जैन एवं बौद्ध धर्म के उदय में योगदान दिया । तत्कालीन उत्तरी भारत में मगध सबसे शक्तिशाली राज्य था। इस राज्य के दो महान शासक बिम्बिसार और अजातशत्रु ब्राह्मणों के प्रभाव से मुक्त थे। वे उदार एवं धार्मिक दृष्टि से सहनशील शासक थे। मगध की बहुसंख्यक जनता भी ब्राह्मणवादी परंपराओं के विरुद्ध थी । अतः इस राज्य मे ब्राह्मणों के, झूठे आडम्बरों एवं प्रचलित बुराइयों के विरुद्ध आवाज का उठना स्वाभाविक था । उल्लेखनीय है कि जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म का सर्वाधिक प्रचार मगध में हुआ तथा बिम्बिसार एवं अज्ञातशत्रु ने इन दोनों धर्मों को संरक्षण प्रदान किया ।