दीन-ए-इलाही क्या है?
दीन-ए-इलाही क्या है? : दीन-ए-इलाही, जिसे ईश्वरीय आस्था के नाम से भी जाना जाता है, 16वीं शताब्दी के अंत में, वर्ष 1582 के आसपास मुगल सम्राट अकबर महान द्वारा स्थापित एक धार्मिक और आध्यात्मिक आंदोलन था।
सरल शब्दों में, दीन-ए-इलाही विभिन्न धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं का मिश्रण था, जिसका उद्देश्य अकबर के साम्राज्य में विभिन्न धर्मों के लोगों को एकजुट करना था। अकबर अपनी प्रजा के बीच सद्भाव और समझ की भावना पैदा करना चाहता था, जो इस्लाम, हिंदू धर्म, ईसाई धर्म और अन्य जैसे विभिन्न धर्मों का पालन करती थी।
दीन-ए-इलाही के कुछ प्रमुख पहलू इस प्रकार हैं:
- दीन-ए-इलाही ने एकता और सहिष्णुता को बढ़ावा देने के प्रयास में इस्लाम, हिंदू धर्म, ईसाई धर्म और पारसी धर्म जैसे विभिन्न धर्मों के तत्वों को संयोजित करने का प्रयास किया।
- इसकी अपनी कोई पवित्र पुस्तक या विशिष्ट धार्मिक ग्रंथ नहीं थे। इसके बजाय, इसने लोगों को अपने मौजूदा धार्मिक ग्रंथों का पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया।
- कुछ केंद्रीय सिद्धांतों में एक ईश्वर में विश्वास, नैतिक व्यवहार पर ध्यान देना और सभी जीवित प्राणियों के प्रति दया और करुणा का आह्वान शामिल है।
- अकबर ने अपने करीबी सहयोगियों और अमीरों को दीन-ए-इलाही के सदस्यों के रूप में नियुक्त किया, और उन्हें “पीर-ए-मुरीद” (आध्यात्मिक मार्गदर्शक) और “सालिब” जैसी विशेष उपाधियाँ दी गईं। क्रॉस-वाहक)। इससे आंदोलन के लिए एक औपचारिक संरचना स्थापित करने में मदद मिली।
- अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता और स्वीकृति की नीति को बढ़ावा दिया। उन्होंने गैर-मुसलमानों पर भेदभावपूर्ण करों को समाप्त कर दिया और अंतर-धार्मिक संवाद को प्रोत्साहित किया।
- अकबर के प्रयासों के बावजूद, दीन-ए-इलाही को व्यापक स्वीकृति नहीं मिली। यह अधिकतर मुगल दरबार तक ही सीमित रहा और साम्राज्य में एक प्रमुख धर्म नहीं बन पाया।
- अकबर की मृत्यु के बाद, उसके उत्तराधिकारियों ने इस प्रथा को जारी नहीं रखा और दीन-ए-इलाही धीरे-धीरे लुप्त हो गया।
शुरूआत में अकबर पक्का सुन्नी मुसलमान था । वह इस्लाम धर्म के अनुसार अपना जीवन बिताता था । और सभी नियमों का पालन करता था । अकबर के माता- पिता, संरक्षकों, मित्रों, हिन्दू कन्याओं के विवाह, भक्ति और सूफी आन्दोलन के प्रभाव के कारण उसके विचारों में एक बहुत बड़ा बदलाव आया और वह एक उदार विचारों वाला व्यक्ति बन गया । उसने सब धर्मों के प्रति उदारता और सहनशीलता की नीति को अपनाया, सबके साथ समानता का व्यवहार किया और सबको धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की । अपनी इस नीति के अनुसार उसने हिन्दुओं पर लगे हुए अनुचित करों को हटा दिया, उनको मन्दिर बनवाने और उनकी मरम्मत की आज्ञा दे दी, उनसे वैवाहिक संबंध स्थापित किए और उनको ऊँचे-ऊंचे सरकारी पदा पर नियुक्त किया। अकबर को अब इस बात का विश्वास हो गया था कि सभी धर्मों में सच्चाई और अच्छाइयाँ हैं। वह यह सहन नहीं कर सकता था कि एक ही बादशाह के अधीन में रहने वाले लोग अलग-अलग वर्गों में बँटे रहे और छोटे-छोटे धार्मिक विषयों पर एक-दूसरे का विरोध करें या लड़ाई-झगड़ा करें। इसलिए 1582 ई. में एक नये मत की नींव रखी जिसे दीन-ए- इलाही कहा जाता है। दीन-ए-इलाही अकबर की धार्मिक उदारता का अद्वितीय उदाहरण है-
दीन-ए-इलाही के नियम क्या है?
दीन-ए-इलाही के नियम निम्नलिखित हैं:
- ईश्वर एक है और अकबर उसका खलीफा है।
- दीन-ए-इलाही के सदस्यों से बादशाह की सेवा के लिए धन, मान, जीवन और धर्म का बलिदान करने की आशा की जाती थी ।
- सब सदस्यों को अकबर के सामने सिर झुकाना अथवा सिजदा करना पड़ता था ।
- मांस खाने की मनाही थी।
- दीन-ए-इलाही के सदस्य बाल-विवाह और वृद्ध – विवाह के विरूद्ध थे ।
- प्रत्येक सदस्य को सबकी भलाई का संकल्प करना पड़ता था ।
दीन-ए-इलाही का भविष्य कैसा था?
दीन-ए-इलाही का भविष्य —
दीन-ए-इलाही के सदस्य बहुत कम थे और अकबर की मृत्यु के बाद ही इसका अंत हो गया था। इसके कई कारण थे-
- इसके प्रचार के लिए अकबर ने कभी किसी प्रकार की राज्य शक्ति का प्रयोग नहीं किया।
- दीन-ए-इलाही को राजकीय संरक्षण न मिला। इसके सदस्यों की संख्या बढ़ाने के लिए अकबर ने किसी को न तो विवश किया और न ही ऊँचे पदों का लालच दिया।
- अकबर ने अपने आपको न तो धर्म गुरु ही घोषित किया और न ही इस मत के अनुयायियों के लिए कोई धर्म- ग्रंथ प्रकाशित करवाया । दीन-ए-इलाही की आलोचना – बहुत से इतिहास- कारों ने दीन-ए-इलाही की कड़ी आलोचना की है। अकबर का यह चलाया गया मत दीन-ए-इलाही कोई नवीन धर्म नहीं था। न तो इसकी कोई धर्म-पुस्तक थी और न ही कोई पुरोहित था यह तो एक ऐसी सामाजिक संस्था थी जिसमें रहकर सब लोग मिलकर भ्रातृ-भाव बढ़ाएँ । अकबर ने विरोधी धर्मों का मिलन कराने के लिए दीन-ए-इलाही की स्थापना की थी । अकबर एक कूटनीतिज्ञ और राज्य निर्माता था । वह कोई धार्मिक नेता या पोप का पद हासिल नहीं करना चाहता था। वह भारत में सुदृढ़ साम्राज्य की स्थापना करना और मुगल वंश की नींव को पक्का करना चाहता था। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह हिन्दू और मुसलमानों के मतभेदों को मिटाना तथा उनमें राष्ट्रीयता और एकता की भावना पैदा करना चाहता था।
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