भारत एक विशाल देश है जिसमें विभिन्न प्रकार का उच्चावचता, भू-आकृतियाँ, जलवायु तथा वनस्पति पाई जाती है। इन तत्वों ने भारत में विभिन्न प्रकार की मृदा के निर्माण में महत्वपूर्ण सहयोग किया है उत्पत्ति, रंग संयोजन तथा अवस्थिति के आधार पर भारत की मृदाओं को निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है— (i) जलोढ़ मृदाएँ,(ii) काली मृदाएँ, (iii) लाला और पीली मृदाएँ, (iv) लेटेराइट मृदाएँ, (v) शुष्क मृदाएँ, (vi) लवण मृदाएँ, (vii) पीटमय मृदाएँ, (viii) वन मृदाएँ
मृदा का वर्गीकरण (Mitti Kitne Prakar Ki Hoti Hai)
1. जलोढ़ मिट्टी
सिन्धु से लेकर ब्रह्मपुत्र नदी तक सभी स्थानों पर जलोढ़ मिट्टियाँ पायी जाती है। ये मिट्टियाँ नदी घाटी के भिन्न- भिन्न भागों के अनुसार भिन्न-भिन्न पायी जाती है। नदियों द्वारा लायी गयी ये मिट्टियाँ हल्के भूरे रंग की होती है। अधिकतर स्थानों में यह पीली दोमट तथा अन्य स्थानों में बलुई व चिकनी है। देश के 7.68 लाख वर्ग कि.मी. भाग पर इस मिट्टी का विस्तार है। इसके तीन उपवर्ग हैं— (i) पुरातन जलोढ़, (ii) नूतन जलोढ़, (iii) नवीनतम जलोढ़ ।
- पुरातन जलोढ़ – इसे बांगर कहते हैं। यहाँ तक बाढ़ का पानी नहीं पहुँच पाता। इस मिट्टी के अपक्षालित होते रहने के कारण कृषि कार्य हेतु सिंचाई, खाद एवं उर्वरक की अधिक आवश्यकता होती है। निरन्तर अपक्षालन के कारण कालान्तर में यह मिट्टी रेत में बदल जाती है और ऊसर के रूप में मिलती है, इसे क्षारीय (Alkaline) मिट्टी कहते हैं। यह कृषि के लिए अनुपयुक्त होती है। क्षेत्र – यह मिट्टी उत्तरप्रदेश, बिहार, हरियाणा और राजस्थान में पायी जाती है।
- नूतन जलोढ़ – यह मिट्टी नदियों के मैदानी भागों में पायी जाती है। इसके कण बारीक होते हैं। इनमें पोटाश, फॉस्फोरिक ऐसिड, चूना तथा जीवांश अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। यह मिट्टी विश्व की बहुत ही उपजाऊ मिट्टियों में से एक है। इसे खादर कहते हैं। क्षेत्र – यह मिट्टी उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, बिहार, झारखण्ड, पूर्वी राजस्थान तथा ब्रह्मपुत्र की घाटी क्षेत्र में पायी जाती है।
- नवीनतम जलोढ़ – इसके कण बारीक होते हैं। इसमें पोटाश, चूना, मैग्नीशियम, फॉस्फोरस और जीवांश अधिक पाये जाते हैं। यह अधिकतर दलदली और नमकीन होती है। क्षेत्र – यह मिट्टी सुन्दरवन महानदी, कृष्णा, गोदावरी और कावेरी नदियों के डेल्टाई प्रदेशों में पायी जाती है। जलोढ़ मिट्टी की विशेषताएँ एवं महत्व
- यह मिट्टी गहरी एवं उपजाऊ होती है। इसमें नमीं धारण करने की क्षमता अधिक होती हैं।
- इसके कण बारीक एवं भुरभुरे होते हैं, फलतः फसलों का उगना एवं सरलता से खुराक प्राप्त करना संभव होता है।
- इस पर नहरें निकालना एवं कुएँ खोदना सरल होता है।
- इसमें पोटाश, फॉस्फोरस, चूना व वनस्पति का अंश अधिक किन्तु नाइट्रोजन की कमी होती है।
- यह भारत का सर्वश्रेष्ठ कृषि क्षेत्र है। बांगर क्षेत्र में गेहूँ, कपास व गन्ना, खादर क्षेत्र में गन्ना व चावल एवं डेल्टाई क्षेत्र में चावल व जूट विशेष रूप से उत्पन्न होते हैं।
2. काली या रेगड़ मिट्टी
यह मिट्टी लावा निर्मित चट्टानों से बनी होती है। इसका रंग काला, कणों की बनावट घनी और रासायनिक तत्वों की मात्रा अधिक होती है। इसमें चूना, पोटाश और लोहा पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। फॉस्फोरस, नाइट्रोजन तथा जीवांशों का इसमें अभाव होता है। यह मिट्टी कपास उत्पादन के लिए अनुकूल होती है।
3. लाल और पीली मिट्टी
यह मिट्टी शुष्क व तर जलवायु के बारी-बारी से बदलने के कारण वेदार चट्टानों के विखण्डन से बनी होती है। यह मिट्टी अत्यधिक रन्ध्र युक्त होती है। ऊँचे शुष्क प्रदेशों में यह हल्के रंग की पथरीली होती है, किन्तु निम्न भूमि में यह गहरे लाल रंग की, अधिक गहरी तथा ऊपजाऊ होती है। चट्टानों में लौह अंश के विसरण के परिणामस्वरूप इसका रंग लाल हो जाता है। साधारणतः इसमें ज्वार, बाजरा पैदा किया जाता है, किन्तु नदियों की घाटियों में चावल की कृषि भी की जाती है। क्षेत्र-यह मिट्टी बुन्देलखण्ड से लेकर दुर दक्षिण तक तमिलनाडु, दक्षिण-पूर्वी महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखण्ड एवं बुन्देलखण्ड के कुछ हिस्सों में पायी जाती है।
4. लेटेराइट मिट्टी
इस मिट्टी का निर्माण अधिकतर ऐसे भागों में होता है, जहाँ शुष्क एवं तर मौसम बारी-बारी से होता है, यह मिट्टी लेटेराइट चट्टानों की टूट-फूट से बनती है। यह कम ऊपजाऊ होती है। इसमें नमी नहीं ठहर पाती, चूना, पोटाश और फॉस्फोरस कम पाया जाता है। यह गृह निर्माण के लिए मूल्यवान तथा अनंतकाल के लिए टिकाऊ होती है। इसकी उत्पत्ति ग्रीक भाषा के लेट (Late) शब्द से हुई है। लेट का अर्थ होता है ‘ईंट’ चूँकि यह ईंट के रंग की होती है। इसलिए इसे लेटेराइट मिट्टी कहते हैं। यह लगभग 1.5 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र में पाई जाती है। विशेष रूप से इसमें तम्बाकू व तिलहन की खेती की जाती है। क्षेत्र – यह मिट्टी पश्चिमी मध्यप्रदेश, कर्नाटक, दक्षिणी महाराष्ट्र, केरल, ओडिशा व असम में पायी है। यह मृदा पश्चिमी घाट, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, ओड़िशा, असम के पर्वतीय क्षेत्रों तथा राजमहल की पहाड़ियों में मिलती है। कई स्थानों पर इसकी ऊपरी परत सूखने पर यह ईंट जैसी कठोर हो जाती है। ऐसी अवस्था में यह मृदा कृषि योग्य तो नहीं रहती परन्तु भवन निर्माण के लिए बहुत ही उपयोगी होती है। फसलों के लिए उपजाऊ बनाने के लिए इन मृदाओं में खाद और उर्वरकों की भारी मात्रा डालनी पड़ती है। तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश और केरल में काजू जैसे वृक्षों वाली फसलों की खेती के लिए लाल लेटेराइट मृदाएँ अधिक उपयुक्त हैं।
5. शुष्क मृदाएँ
जैसा कि इनके नाम से ही विदित होता है, ये मृदाएँ राजस्थान तथा इसके निकटवर्ती दक्षिण-पश्चिमी पंजाब एवं दक्षिण-पश्चिमी हरियाणा के शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में पाई जाती हैं। इनका रंग लाल से भूरा होता है। अधिकांश शुष्क मृदाएँ रेतीली एवं लवणीय होती हैं। कुछ क्षेत्रों की मृदाओं में नमक की मात्रा इतनी अधिक होती हैं कि इनके पानी को वाष्पीकृत करके नमक प्राप्त किया जाता है। जलवायु शुष्क होने के कारण वाष्पीकरण अधिक होता है। जिससे इन मृदाओं में आर्द्रता तथा ह्यूमस की कमी होती है। नीचे की ओर चूने की मात्रा के बढ़ते जाने के कारण निचले संस्तरों में कंकड़ों की परतें पाई जाती है। मृदा के तली संस्तर में कंकड़ों की परत के बनने के कारण पानी का रिसाव सीमित हो जाता है इसलिए सिंचाई किए जाने पर इन मृदाओं में पौधों की सतत् वृद्धि के लिए नमी सदा उपलब्ध रहती है।
6. लवण मृदाएँ
इन्हें ऊसर मृदाएँ भी कहते हैं। इन मृदाओं में सोडियम, पोटेशियम तथा मैग्नीशियम अधिक होते हैं जिस कारण ये अनुर्वर होती है। इनमें वनस्पति का अभाव अधिक होता है। इन मृदाओं के लवणीय होने का मुख्य कारण शुष्क जलवायु तथा खराब अपवाह प्रणाली है। सपष्ट है कि ये मृदाएँ शुष्क एवं अर्ध शुष्क तथा जलाक्रांत क्षेत्रों में पाई जाती हैं। ये बलुई से दुमटी तक होती है। जिनमें नाइट्रोजन तथा चूने का अभाव होता है। ये मृदाएँ मुख्यतः पश्चिमी गुजरात पूर्वी तट के डेल्टाओं तथा पश्चिमी बंगाल के सुंदर वन क्षेत्रों में पाई जाती है। कच्छ के रन में दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के साथ नमक के कण आते हैं, जो एक पपड़ी के रूप में ऊपरी सतह पर जमा हो जाते हैं। डेल्टा प्रदेश में समुद्री जल के भर जाने से लवण मृदाओं के विकास को बढ़ावा मिलता है। अत्यधिक सिंचाई वाले गहन कृषि के क्षेत्रों में, विशेष रूप से हरित क्रांति वाले क्षेत्रों में, उपजाऊ जलोढ़ मृदाए भी लवणीय होती जा रही है। इसके परिणामस्वरूप नमक ऊपर की ओर बढ़ता है और मृदा की सबसे ऊपरी परत में नमक जमा हो जाता है। इस प्रकार के क्षेत्रों में, विशेष रूप में पंजाब और हरियाणा में मृदा लवणता की समस्या से निपटने के लिए जिप्सम डालने की सलाह दी जाती है।
7. मय मृदाएँ
पीटमय मृदाएँ अधिक वर्षा तथा उच्च आर्द्रता वाले इलाकों में पाई जाती है। इनका विस्तार मुख्यतः बिहार, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा तथा तमिलनाडु में है। इन पर वनस्पति खूब उगती है। ये मृदाएँ ह्यूमस तथा जैव तत्व की दृष्टि से घनी होती है। इन मृदाओं में जैव पदार्थों की मात्रा 40 से 50 प्रतिशत तक होती है। ये मृदाएँ सामान्यतः गाढ़े और काले रंग की होती हैं। अनेक स्थानों पर ये क्षारीय भी हैं।
8. वन मृदाएँ
ये मृदाएँ अधिक वर्षा वाले उन इलाकों में पाई जाती हैं जहाँ वनस्पति का आवरण घना है। अधिकांश वन मृदाएँ हिमालयी क्षेत्र में पाई जाती है जहाँ इनके गठन तथा संरचना पर्वतीय पर्यावरण के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। घाटियों में ये दुमटी और पांशु होती हैं तथा ऊपरी ढालों पर ये मोटे कणों वाली होती है। हिमालय के हिमाच्छादित क्षेत्रों में इन मृदाओं का अनाच्छादन होता रहता है और ये अम्लीय और कम ह्यूमस वाली होती है। निचली घाटियों में पाई जाने वाली मृदाएँ उर्वर होती हैं।
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