मुद्रा किसे कहते हैं? (Mudra Kise Kahate Hain)
मुद्रा एक ऐसी वस्तु है, जिसे विस्तृत रूप में विनिमय के माध्यम, मूल्य के मापक तथा मूल्य के संचय के साधन के रूप में स्वतंत्र एवं सामान्य रूप में स्वीकार किया जाता है.
मुद्रा की परिभाषा
मुद्रा की प्रमुख परिभाश्यें निम्नाकित हैं –
(अ) वर्णनात्मक या कार्यात्मक परिभाषाएँ – इस वर्ग में सम्मिलित मुद्रा की परिभाषाएँ मुद्रा के कार्यों का वर्णन करती है । कॉलबोर्न के अनुसार, “मुद्रा वह है जो मूल्य मापक और भुगतान का साधन है । ” हार्टले विदर्स के अनुसार, “मुद्रा वह है, जो मुद्रा का कार्य करे। “
( ब ) वैधानिक परिभाषाएँ – इस वर्ग की परिभाषा के अनुसार, मुद्रा वह है जिसे र वैधानिक रूप में मुद्रा की मान्यता प्रदान करती है। नैप के अनुसार, “कोई भी वस्तु जो राज्य द्वारा मुद्रा घोषित कर दी जाती है, मुद्रा कहलाती है।”
(स) सामान्य स्वीकृति की परिभाषाएँ – इस वर्ग में मुद्रा की वे परिभाषाएँ सम्मिलित की जाती है, जो मुद्रा की सामान्य स्वीकृति अथवा सर्वग्राह्ययता पर जोर देती है। सैलिगमैन के अनुसार, “मुद्रा वह वस्तु है, जिसे सर्वग्राह्ययता प्राप्त है।” कोल के अनुसार, “मुद्रा ऐसी वस्तु है, जिससे दूसरी वस्तुएँ खरीदी जा सकती हैं। यह ऐसी वस्तु है जो साधारणत: पैमाने पर भुगतान के रूप में प्रयोग की जाती है और ऋणों के भुगतान में स्वीकार की जाती है।”
(द) विस्तृत परिभाषाएँ – विस्तृत परिभाषाओं के अन्तर्गत मुद्रा के सभी रूपों को स्वीकार व्यापक कर लिया जाता है। जो कोई भी वस्तु मुद्रा से संबंधित कार्यों के सम्पादन में सहायता देती है, उसे मुद्रा कहते हैं। हार्टले विदर्स के अनुसार, “मुद्रा वह है, जो मुद्रा का कार्य करें।” इस वर्ग की परिभाषाओं के अनुसार, धातु सिक्के एवं करेंसी नोट ही मुद्रा नहीं है, बल्कि चेक, विनिमय पत्र आदि भी मुद्रा में सम्मिलित किए जा सकते हैं।
(इ) संकुचित परिभाषाएँ – इन परिभाषाओं में मुद्रा के सामान्य स्वीकृति के गुण की प्रधानता होती है। रॉबर्टसन के अनुसार, “मुद्रा वह वस्तु है जिसे वस्तुओं के मूल्य भुगतान करने तथा अन्य व्यावसायिक दायित्वों को निबटाने के लिए विस्तृत रूप से स्वीकार किया जाता है।” रॉबर्टसन की यह परिभाषा मुद्रा के क्षेत्र को अधिक संकुचित बना देती है, क्योंकि केवल धातु सिक्कों को ही इस परिभाषा के अनुसार मुद्रा कहा जा सकता है।
(स) उचित परिभाषाएँ – प्रो. एली के अनुसार, “मुद्रा कोई भी ऐसी वस्तु हो सकती है, जिसकी विनिमय के माध्यम के रूप में स्वतंत्रतापूर्वक हस्तांतरण होता है और जो सामान्यताः ऋणों के अंतिम भुगतान में ग्रहण की जाती है।” प्रो. मार्शल के अनुसार, “मुद्रा में वे सभी वस्तु सम्मिलित हैं, जो किसी विशेष समय अथवा स्थान पर बिना किसी प्रकार के संदेह अथवा विशेष जाँच के वस्तुओं तथा सेवाओं को खरीदने तथा व्यय करने के साधन के रूप में सामान्यतः स्वीकार की जाती हैं।” –
इन परिभाषाओं के अनुसार तो केवल धातु मुद्रा एवं कागजी मुद्रा को ही मुद्रा में सम्मिलित किया जा सकता है। अतः मुद्रा की एक उचित परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है, “मुद्रा एक ऐसी वस्तु है जो समाज में विनिमय के माध्यम, मूल्य के मापन, स्थगित भुगतानों के मान तथा मूल्य के संचय के माध्यम के रूप में स्वतंत्र, विस्तृत तथा सामान्य रूप से लोगों द्वारा स्वीकार की जाती है। “
मुद्रा के कार्य (FUNCTIONS OF MONEY)
सामान्यतया, मुद्रा के कार्यों को प्रमुख रूप से चार भागों में बाँटा जाता है—
(अ) मुद्रा के प्राथमिक कार्य –
मुद्रा के प्राथमिक कार्य से आशय, उन कार्यों से है, जो मुद्रा ने प्रत्येक काल, प्रत्येक देश तथा प्रत्येक स्थिति में किए हैं। इन्हें आधारभूत एवं मौलिक कार्य भी कहा जाता है। मुद्रा के प्राथमिक कार्य को दो भागों में बाँटा जाता है-
- विनिमय का माध्यम- मुद्रा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य विनिमय के माध्यम के रूप में कार्य करना है। में सामान्य स्वीकृति का गुण होने के कारण विभिन्न वस्तुओं का लेन-देन प्रत्यक्ष न होकर मुद्रा के माध्यम से होता है। विनिमय के माध्यम का कार्य करके मुद्रा ने वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयों को समाप्त कर दिया है। मुद्रा से ही वस्तुओं एवं सेवाओं को खरीदा और बेचा जाता है। आप अपनी वस्तु को मुद्रा के बदले बेच सकते हैं और इससे प्राप्त मुद्रा से अपनी मनचाही कोई अन्य वस्तु खरीद सकते हैं।
- मूल्य का मापक- मूल्य का मापन, मुद्रा का दूसरा प्राथमिक कार्य है। मुद्रा अर्थव्यवस्था में सामान्य मूल्य के मापक के रूप में कार्य करती है। यह मूल्य के मापदण्ड अथवा सर्वमान्य मापक जिससे अन्य सभी वस्तुओं की तलना की जा सकती है, का कार्य करती है। यही नहीं, कुछ वस्तुओं की अविभाज्यता की कठिनाई को भी मुद्रा ने दूर कर दिया है, क्योंकि मुद्रा के छोटे-छोटे सिक्के बनते हैं, जिनकी सहायता से छोटी से लेकर बड़ी तक किसी भी वस्तु के मूल्य को माप अथवा आँका जा सकता है।
(ब) मुद्रा के गौण कार्य –
मुद्रा अपने विकास की प्रारंम्भिक अवस्था में इन कार्यों को नहीं करती थीं, लेकिन जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था विकसित होती गई, मुद्रा के गौण या सहायक कार्यों का महत्व बढ़ता गया। इस श्रेणी में निम्न तीन कार्य आते हैं-
- मूल्य का संचय – मुद्रा मूल्य के संचय के रूप में महत्वपूर्ण कार्य करती है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आय का कुछ अंश सदैव बचाना चाहता है। धन का संचय वस्तुओं के रूप में कठिन होता है, क्योंकि (i) कुछ वस्तुएँ नाशवान होती हैं, जिनका संचय नहीं किया जा सकता, जैसे-दूध, मछली, अण्डा आदि। (ii) टिकाऊ वस्तुएँ स्थान घेरती हैं तथा (iii) वस्तुओं का मूल्य अस्थिर होता है। मुद्रा के रूप में धन का संचय अधिक सुविधाजनक होता है, क्योंकि मुद्रा वस्तुओं की तुलना में अधिक स्थिर रहता है। यदि किसी व्यक्ति को अपने आकस्मिक संकटों अथवा भावी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए कुछ धन बचाकर रखना हो, तो मुद्रा से बेहतर कोई भी वस्तु नहीं हो सकती।
- भावी भुगतान – वर्तमान युग साख (अर्थात् उधार लेन-देन) का युग है। आज सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था का कार्य बिना उधार के नहीं चल सकता। मुद्रा के कारण अंश-पत्र, ऋणपत्र तथा प्रतिभूतियाँ खरीदना व बेचना सम्भव हो गया है। सभी प्रकार के भविष्य में होने वाले भुगतानों को मुद्रा के रूप में सरलता से किया जा सकता है, क्योंकि (i) मुद्रा का मूल्य वस्तुओं की तुलना में अधिक स्थिर रहता है, (ii) इसमें सामान्य स्वीकृति का गुण पाया जाता है, एवं (iii) यह अन्य वस्तुओं की तुलना में अधिक टिकाऊ होती है। इस प्रकार, सभी भुगतानों का एक निश्चित समय के बाद मुद्रा के रूप में भुगतान करना ऋणी तथा ऋणदाता दोनों के लिए लाभप्रद रहता है।
- मूल्य का हस्तांतरण – मुद्रा मूल्य के हस्तांतरण को सम्भव बनाती है। परिवहन के साधनों के विकास के फलस्वरूप मनुष्य की गतिशीलता में बहुत वृद्धि हुई है। अब यदि कोई व्यक्ति जबलपुर छोड़कर भोपाल जाकर बसना चाहता है, तो वह जबलपुर में अपनी सम्पत्ति बेचकर मुद्रा प्राप्त कर लेगा और फिर वह उसी मुद्रा से भोपाल में सम्पत्ति खरीद लेगा।
(स) मुद्रा के आकस्मिक कार्य –
मुद्रा के आकस्मिक कार्यों से आशय, उन कार्यों से है, जब मुद्रा उपभोक्ताओं एवं उत्पादकों को आर्थिक निर्णय लेते समय उनकी सहायता करती है। मुद्रा के प्रमुख आकस्मिक कार्य निम्नांकित हैं- –
- राष्ट्रीय आय का मापन – वस्तु विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत राष्ट्रीय आय का मापन सम्भव नहीं था। लेकिन मुद्रा राष्ट्रीय आय के मापन को सम्भव बनाती है। यह मुद्रा ही है, जिसमें विभिन्न प्रकार की उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्यों को मापा जाता है। –
- राष्ट्रीय आय का वितरण – मुद्रा के द्वारा केवल राष्ट्रीय आय का मापन ही सम्भव नहीं होता, बल्कि यह उसके वितरण में भी सहायक होती है। इसके द्वारा ही उत्पादन के साधनों को लगान, मजदूरी, ब्याज तथा लाभ के रूप में भुगतान किए जाते हैं।
- अधिकतम संतुष्टि की प्राप्ति – एक उपभोक्ता वस्तु की कीमत को (जिसे मुद्रा में ही मापा जाता है उससे प्राप्त सीमान्त उपयोगिता के बराबर करके अधिकतम संतुष्टि की स्थिति प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार, एक उत्पादन साधन की कीमत को उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर करके अधिकतम लाभ बिन्दु पर पहुँच सकता है।
- साख का आधार – आज साख को व्यापार की रीढ़ की हड्डी समझा जाता है। आधुनिक युग में साख का विस्तार मुद्रा के आधार पर ही हुआ है। बैंक आदि साख का निर्माण, बैंक में जमा मुद्रा के कारण ही कर पाते हैं। यदि मुद्रा की मात्रा अधिक है, तो साख का निर्माण भी अधिक होगा। एक व्यक्ति की साख कितनी है अर्थात् वह कितनी उधार ले सकता है, उसको मुद्रा में ही मापा जा सकता है।
- पूँजी की उत्पादकता – मुद्रा पूँजी की उत्पादकता में वृद्धि लाने में सहायक होती है, क्योंकि इसमें पूर्ण तरलता का गुण पाया जाता है। पूँजी को कम उत्पादक व्यवसाय से निकालकर अधिक उत्पादक व्यवसायों की ओर सरलता से हस्तांतरित किया जा सकता है। इसीलिए हाल ही के वर्षों में मुद्रा की गतिशीलता में भारी वृद्धि हुई है।
(द) मुद्रा के अन्य कार्य
मुद्रा ने कुछ अन्य कार्य भी किए हैं। इनमें हैं—
- निर्णय का वाहक – मुद्रा निर्णय लेने में सहायक होती है। इसका यह अर्थ है कि जिस भी व्यक्ति के पास मुद्रा होती है, वह उसका जिस प्रकार चाहे प्रयोग कर सकता है।
- शोधन क्षमता की गारंटी-मुद्रा शोधन क्षमता की गारंटी प्रदान करती है। यदि किसी व्यक्ति अथवा फर्म के पास मुद्रा के पर्याप्त भण्डार हैं, तो उसकी ऋण वापस चुकाने की क्षमता की गारंटी हो जाती है।
- तरलता – मुद्रा पूँजी का तरलतम रूप होता है। कीन्स के अनुसार, पूँजी को तीन उद्देश्यों के लिए तरल रूप में रखना पड़ता है— (i) प्रतिदिन के लेन-देन के उद्देश्य से, (ii) व्यवसाय को सुचारू रूप से चलाने हेतु, एवं (iii) आकस्मिक आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु ।
मुद्रा का महत्व
मुद्रा आधुनिक समय में आर्थिक जीवन का केन्द्र बिन्दु है। प्रो. मार्शल के अनुसार, “मुद्रा वह धुरी है, जिसके चारों ओर समस्त अर्थविज्ञान चक्कर लगाते हैं । ” आर्थिक क्षेत्र में मुद्रा के महत्व को निम्न बिन्दुओं के रूप में स्पष्ट किया जा सकता हैं-
- उपभोग के क्षेत्र में महत्व – मुद्रा का सबसे अधिक लाभ उपभोक्ता को हुआ है । मुद्रा के द्वारा उपभोक्ता अपनी आय को इस प्रकार व्यय करता है कि उसे अधिकतम संतुष्टि की प्राप्ति हो । मुद्रा निहित क्रयशक्ति के कारण उपभोक्ता उसका उपयोग अपनी इच्छानुसार चाहे जब तक चाहे जिस कार्य के लिए कर सकता है । मुद्रा ने विनिमय कार्य को सरल बना दिया है, अतः उपभोक्ता अधिक वस्तुओं एवं सेवाओं का उपभोग करने में सक्षम हो गया है। इस प्रकार मुद्रा उपभोक्ता के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने में मदद करती है ।
- उत्पादन के क्षेत्र में महत्व – एक उत्पादक अपने उत्पादन की योजना बनाते समय उत्पादन, लागत, विक्रय मूल्य तथा लाभ को ध्यान में रखता है । इनका निर्धारण मुद्रा के अभाव में संभव नहीं है। कारखानों का निर्माण, साधनों का सर्वोत्तम संयोग, कच्चे माल का क्रय, श्रमिकों, प्रबंधकों एवं विशेषज्ञों की सेवाओं की प्राप्ति आदि सभी कार्य मुद्रा के द्वारा ही संभव होते हैं। मुद्रा ने ही बचत एवं विनियोग को संभव बनाया है, जिसके आधार पर पूँजी का निर्माण होता है।
- विनिमय के क्षेत्र में महत्व – मुद्रा ने वस्तु विनिमय प्रणाली के दोषों को दूर करके विनिमय को सरल बना दिया है। मुद्रा के द्वारा भावी सौदों के मूल्य वर्तमान में ही निर्धारित हो जाते हैं । मुद्रा ही सामान्य मूल्य का आधार है। मुद्रा के कारण व्यापार एवं वाणिज्य का क्षेत्र न केवल देश के भीतर विस्तृत बना, बल्कि व्यापार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने लगा ।
- वितरण के क्षेत्र में महत्व – आधुनिक युग उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है, जिसमें उत्पादन के सभी साधन बड़ी मात्रा में हिस्सा लेते हैं, अतः साधनों के सामूहिक प्रयासों के परिणामस्वरूप जो उत्पादन प्राप्त होता है, उसके वितरण में मुद्रा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मुद्रा के द्वारा ही उत्पादन के प्रत्येक साधन को उसकी सीमान्त उत्पादकता के अनुसार समस्या हल हो जाती है। प्रतिफल देना संभव होता है।
- राजस्व के क्षेत्र में महत्व – राजस्व के क्षेत्र में भी मुद्रा का महत्वपूर्ण योगदान है, जैसे- (i) सरकार की आय का मुख्य स्रोत कर एवं सार्वजनिक ऋण है। सरकार कर एवं ऋण लोगों से मुद्रा के ही रूप में प्राप्त करती है, (ii) सरकार सार्वजनिक हित में शिक्षा स्वास्थ्य सुरक्षा विकास पर व्यय करती है। यह व्यय भी मुद्रा के ही रूप में किया जाता है, (iii) सरकार जो बजट तैयार करती है, वह भी मुद्रा के रूप में ही तैयार किया जाता है। मुद्रा के बिना वार्षिक आय एवं व्यय का विवरण तैयार करना असम्भव है, (iv) सरकार अपने बजट के घाटे की पूर्ति भी मुद्रा के रूप में करती है। इस प्रकार स्पष्ट है, कि आर्थिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मुद्रा का महत्वपूर्ण योगदान है।
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