उद्योग के प्रकार और उनकी स्तिथि – Udyog Ke Prakar

उद्योगों का वर्गीकरण कई प्रकार से किया जाता है। इनमें आकार, पूँजी निवेश और श्रम शक्ति के आधार पर दद्यांगों को वृहद्; मध्यम, लघु और कुटीर उद्योग में वर्गीकृत किया जाता है किन्तु भारत में उपलब्ध उद्योगों को उनकी क्षमता आकार कार्यप्रणाली के आधार पर निम्नलिखित श्रेणीयों में रखा जा सकता है।

उद्योग के प्रकार (Udyog Ke Prakar)

1. कच्चा माल तथा निर्मित वस्तुओं के आधार पर –

  • भारी उद्योग— इन उद्योगों में भारी कच्चे माल का प्रयोग होता है जिससे विनिर्मित वस्तुएँ भी भारी होती है, यथा— लोहा-इस्पात उद्योग ।
  • हल्के उद्योग— इन उद्योगों में हल्के कच्चे माल का प्रयोग होता है जिससे विनिर्मित वस्तुएँ भी हल्की होती है, यथा- इलेक्ट्रॉनिक उपकरण

2. पूँजी अथवा श्रम की गहनता के आधार पर –

  • पूँजीपरक उद्योग — पूँजीपरक उद्योग वे होते हैं जिनमें बड़ी मात्रा में पूँजी का विनियोग आवश्यक होता है । – इनमें लोहा-इस्पात एवं एल्युमिनियम उद्योग सम्मिलित है।
  • श्रमपरक उद्योग — श्रमपरक उद्योग वे हैं जिनमें पूँजी की अपेक्षा श्रमिकों को नियोजित करने की अधिक आवश्यकता होती है। इनमें लघु एवं कुटीर उद्योग सम्मिलित होते हैं।

3. पूँजी के स्वामित्व के आधार पर-

  • सार्वजनिक उद्योग — ये उद्योग स्वामित्व, प्रबन्ध एवं नियंत्रण की दृष्टि से केन्द्र सरकार, राज्य सरकार के अधीन रहते हैं। उदाहरणार्थ दुर्गापुर, राउरकेला तथा भिलाई इस्पात कारखानें ।
  • निजी उद्योग – ये उद्योग वे हैं जो स्वामित्व, प्रबन्ध एवं नियंत्रण की दृष्टि से सरकार के अधीन नहीं रहते और सेवाएँ तथा उपभोक्ता वस्तुएँ जनसाधारण को उपलब्ध कराते रहते हैं।
  • संयुक्त अथवा सहकारी उद्योग- जब उद्योगों में दो या दो से अधिक व्यक्तियों या सहकारी समिति का योगदान हो तो उन्हें संयुक्त अथवा सहकारी उद्योग कहा जाता है।

4. आकार के आधार पर-

  • वृहद् उद्योग – जब उद्योगों में बड़ी मात्रा में श्रमिकों का प्रयोग होता हो तथा विज्ञान एवं तकनीकी के माध्यम से उत्पादन भी बहुत ज्यादा होता हो तो उन्हें वृहद् उद्योग कहा जाता है, यथा- वस्त्र उद्योग
  • मध्यम आकार के उद्योग- इनमें बहुत अधिक श्रम का प्रयोग नहीं होता है और न ही बहुत कम अर्थात् मध्यम रहता है, यथा- साइकिल उद्योग ।
  • लघु आकार के उद्योग- लघु आकार के उद्योग बहुत छोटे होते हैं जिनमें बहुत कम व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। इन्हें ज्यादातर परिवार के सदस्य मिलकर चलाते रहते हैं। इनमें पूँजी भी बहुत कम लगायी जाती है। इनसे तैयार माल स्थानीय बाजार को उपलब्ध होने लगता है।

5. उत्पादित माल के आधार पर –

  • उपभोक्ता उद्योग – उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन करने वाले उद्योग उपभोक्ता उद्योग कहलाते हैं, यथा– वस्त्र एवं बेकरी उद्योग ।
  • पूँजीगत उद्योग — पूँजीगत उद्योग वे हैं जो पूँजीगत वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, यथा— चीनी, जूट, चाय, कहवा, खाद्य तेल आदि ।

6. विविध उद्योग-

  • आधारभूत उद्योग — आधारभूत उद्योग वे कहलाते हैं जो दूसरे उद्योगों को आधार प्रदान करते हैं, यथा- लोहा-इस्पात उद्योग ।
  • कुटीर उद्योग — कुटीर उद्योग वे होते हैं जिन्हें श्रमिक अपने घरों पर ही स्थापित कर लेते हैं, यथा- खादी, हथकरघा तथा चमड़ा उद्योग ।
  • ग्रामीण उद्योग — ये उद्योग पूर्णतः ग्रामों में ही विकसित होते हैं, यथा- आटा चक्की लगाना, कोल्हू से तेल निकालना, कृषि उपकरण बनाना आदि।

7. कच्चे माल के स्रोत के आधार पर –

  • कृषि पर आधारित उद्योग सूती वस्त्र, जूट, रेशमी वस्त्र, चीन एवं वनस्पति तेल उद्योग कृषि पर आधारित उद्योग है।
  • खनिजों पर आधारित उद्योग- वे उद्योग जो खनिजों पर आधारित होते हैं, खनिज उद्योग कहलाते हैं, यथा- लोहा-इस्पात तथा एल्युमिनियम उद्योग ।
  • वनों पर आधारित उद्योग- इन उद्योगों के लिए कच्चा माल वनों से प्राप्त होता है, यथा- कागज, गत्ता, लाख, रेसिन आदि ।
  • चारागाहों पर आधारित उद्योग – ये वे उद्योग हैं जो पशुओं पर आधारित होते हैं, यथा- डेयरी उद्योग तथा चमड़ा उद्योग आदि ।

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उद्योगों की स्थिति (Udyogon Ki Sthiti)

उद्योग भौतिक वस्तुओं के उत्पादक इकाई है। किसी भी उद्योग की स्थापना महज सरल कार्य नहीं है। सामान्य हो या विशिष्ट छोटे हो या बड़े उद्योग सभी की स्थापना के लिए प्राय: कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ होती है जिनके कारण एक उद्योग सफल रूप से विकसित होता है किसी भी उद्योग के स्थानीयकरण हेतु निम्नलिखित कारकों की आवश्यकता होती है। जो निम्नलिखित हैं-

1. कच्चा माल

किसी उद्योग विशेष को कच्चे माल की आवश्यकता होती है। कच्चे माल की प्रकृति के अनुसार उद्योग की स्थापना होती है। उदाहरणार्थ, भारी तथा अधिक आयतन वाले कच्चे माल का उपयोग करने वाले उद्योगों की स्थापना कच्चे माल की आपूर्ति के स्थानों के समीप ही की जाती है। ये उद्योग परिवहन व्यय तथा माल के शीघ्र खराब होने के भय से दूर स्थापित नहीं किये जा सकते। इसलिए पश्चिम बंगाल में जूट मिल, महाराष्ट्र तथा गुजरात में कपड़ा उद्योग, उत्तरप्रदेश में चीनी उद्योग आदि की स्थापना हुई है। इसी प्रकार लोहा-इस्पात उद्योग जिसमें कोयला तथा लौह-अयस्क का उपयोग बहुत भारी मात्रा में होता है और जिनके निर्माण की प्रक्रिया में भार कम हो जाता है।

2. शक्ति के साधन

सभी आधुनिक उद्योग किसी न किसी शक्ति के साधन पर निर्भर है। शक्ति के साधनों की प्रकृति के अनुसार उद्योगों की स्थापना इससे प्रभावित है। उदाहरणार्थ, लोहा तथा इस्पात के कारखाने जो कि शक्ति के साधन के रूप में भारी मात्रा में कोकिंग कोयले पर निर्भर है, मुख्य रूप से कोयला क्षेत्रों के समीप है। इसके विपरीत, जल- विद्युत् तथा पेट्रोलियम शक्ति पर आधारित उद्योग इनके उत्पादन केन्द्रों से दूरस्थ स्थानों पर पहुँचाया जा सकता है। इसीलिए इन साधनों ने उद्योगों के विकेन्द्रीकरण में सहायता की है।

3. बाजार

वस्तुएँ सदैव बाजार के लिए निर्मित की जाती हैं। अतः बाजार तक सुगम पहुँच अनेक उद्योगों की स्थिति और आकार का महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व है। उपभोग करने वाले बाजारों की समीपता के कारण वस्तुओं को भेजने में होने वाले परिवहन व्यय में बचत होती है तथा इससे उत्पादकों को उपभोक्ताओं की परिवर्तनशील आदतों, रीति-रिवाजों के अनुसार निर्माण कार्यक्रम में आवश्यक समायोजन करने में सहायता मिलती है।

4. परिवहन

प्रत्येक उद्योग में कच्चे माल की आपूर्ति के स्रोतों से कारखानें तक तथा निर्मित वस्तुओं को कारखानों से बाजार या उपभोग केन्द्रों तक लाने-ले जाने के लिए सस्ते और सक्षम परिवहन की आवश्यकता होती है। अतः उद्योगों का विकास उन्हीं स्थानों पर होता है जहाँ यातायात की पर्याप्त सुविधाएँ (जल, थल यातायात) उपलब्ध हैं। रेल या 5 जंक्शन उद्योग की स्थापना के लिये बहुत उपयुक्त केन्द्र माने जाते हैं। इसी प्रकार बन्दरगाह समुद्री मार्गों की निकट सड़क के कारण औद्योगिक केन्द्र बन जाते हैं।

5. श्रमिक

किसी उद्योग को सफलतापूर्वक चलाने के लिए समुचित मजदूरी पर सही प्रकार के श्रम की आपूर्ति अत्यन्त आवश्यक है। ऐसे उद्योग जिनमें अधिकांश कार्य मशीनों द्वारा किए जाते हैं तथा कम चातुर्य की आवश्यकता पड़ती है, बहुधा वृहत् शहरी केन्द्रों की ओर आकर्षित होते हैं, जहाँ अकुशल श्रमिकों की कोई कमी नहीं होती है। दूसरी ओर कुछ ऐसे उद्योग हैं जिनमें पैतृक चातुर्य वस्तु-निर्माण की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कारक होती हैं। ऐसी दशा में यदि श्रम अगतिशील है उद्योगों को वहाँ स्थापित किया जाता है जहाँ श्रमिक उपलब्ध होते हैं। सामान्यतया श्रम गतिशील होता है और उद्योग दूरस्थ स्थानों से उत्तम प्रकार के श्रम को आकर्षित करते हैं। उदाहरणार्थ, कोलकाता औद्योगिक नगर होने के कारण बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश आदि राज्यों से श्रम आकर्षित करता है।

6. ऐतिहासिक कारक

प्राचीन काल में ऐसे कई केन्द्र रहे जो अपनी स्थिति के कारण व्यापारियों के आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। इन नगरों में कलकत्ता, चेन्नई (मद्रास), सूरत, मूर्शिदाबाद आदि नगर आज प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है किन्तु ये अपनी ऐतिहासिक स्थिति के कारण प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र भी है।

7. औद्योगिक नीति

भारत एक विशालकाय देश है कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, यह विविधता है गुजरात से लेकर पश्चिम बंगाल तक संसाधनों से लेकर जलवायु गत् भिन्नता भी है ऐसे में एक औद्योगिक नीति राष्ट्र को एक सूत्र में बान्धे रखती है। तथा विकसित, विकासशील एवं पिछड़े औद्योगिक क्षेत्रों को विकसित करने में सुविधा होती है।

8. पूँजी

पर्याप्त पूँजी के बिना किसी भी प्रकार का उत्पादन सम्भव नहीं है। बैंक तथा अन्य वित्तीय संस्थाएँ पूँजी निर्माण में सहायता करती है और इस प्रकार समय-समय पर वित्तीय सहायता प्रदान करती है। विकसित देशों में पूँजी तरल एवं गतिशील होने के कारण उद्योगों के स्थानीयकरण में महत्वपूर्ण कारक नहीं मानी जाती हैं किन्तु विकासशील देशों; जैसे- भारत में पूँजी उद्योगों के स्थानीयकरण को एक निर्णायक तत्व माना जाता है।

9. जलवायु

कुछ उद्योगों के सफल संचालन के लिए विशेष प्रकार की जलवायु की आवश्यकता होती है। सूती वस्त्र उद्योग के लिये आर्द्र जलवायु चाहिए जबकि फोटोग्राफी संबंधी सामान बनाने के लिए शुष्क जलवायु वाले भागों में इनके उद्योग विकसित होते हैं। यद्यपि वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक प्रगति के कारण इस कारक का महत्व कम हो गया है, फिर भी जलवायु संबंधी अवरोधों पर विजय प्राप्त करने वाली पद्धतियाँ इतनी खर्चीली है कि इनका प्रयोग खुले रूप से नहीं किया जा सकता।

10. जल आपूर्ति

किसी उद्योग की स्थापना में जल का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। जल-विद्युत् के अतिरिक्त भी उद्योगों में जल की आवश्यकता होती है। खाद्य संसाधन, रसायन, परमाणु शक्ति तथा कागज जैसे- उद्योगों में जल की आवश्यकता पड़ती है।

11. टैक्नोलॉजी

उद्योगों के सफल संचालन हेतु विज्ञान इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी की आवश्यकता भी पूरा महत्त्व रखता। आज जिन देशों में औद्योगिक विकास उच्च कोटि का हुआ है उन्होंने टैक्नोलॉजी पर विशेष ध्यान दिया है।

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